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दुदही (कुशीनगर)। वैसे तो सुतली व्यवसाय दुदही क्षेत्र के लोगों के लिए रोजगार का बेहतर विकल्प है। यह व्यवसाय कम खर्च में अधिक मुनाफा देने की कूबत रखता है। लेकिन शासन स्तर पर इसे प्रोत्साहन न मिलने की वजह से यह उद्योग का रूप नहीं ले पा रहा है। आज भी इस क्षेत्र के लगभग डेढ़ दर्जन परिवारों की आजीविका सुतली व्यवसाय पर निर्भर है। इनकी बनाई रस्सियां उत्तर प्रदेश के अलावा अन्य प्रदेशों और नेपाल तक के थोक कारोबारी खरीदने आते हैं।
क्षेत्र के दुबौली, चाफ, जंगल लाला छपरा, लोहरपट्टी, बतरौली धुरखड़वा, मिश्रौली, रामपुर, ठाड़ीभार, गोड़रिया, नरहवा, नौगहवां, लुअठहां, पडरौन मडुरही, बांसगांव, शाहपुर, पिपरा सहित लगभग दो दर्जन गांव हैं, जहां के अधिकतर लोग पटसन (पटुआ) और सनई से रस्सी तैयार करते हैं। यह व्यवसाय परंपरागत तरीके से संचालित होता है। दुदही तथा इसके आस-पास के बाजारों में रस्सी का बाजार भी लगता है। इनकी तैयार की गई रस्सियों से चारपाई बुनने से लेकर कालीन, चटाई, पाल और मोटी रस्सियां बनाई जाती हैं। सनई से सुतली तैयार की जाती है। रस्सियां तैयार करने के बाद उसे गोदाम में इकट्ठा करते जाते हैं और फिर बाहरी व्यापारियों के हाथों इन्हें बेंच देते हैं। व्यवसायी बताते हैं कि मुजफ्फरनगर, मेरठ, बुलंदशहर, आजमगढ़, फैजाबाद, दिल्ली, हिमांचल प्रदेश और नेपाल के थोक कारोबारी यहां रस्सी का व्यापार करने आते हैं। इन गांवों के अधिकतर लोगों की आजीविका रस्सी व्यवसाय पर निर्भर है। यदि जनप्रतिनिधियों ने इसे उद्योग का रूप देने के लिए प्रयास किया होता तो आज इन गांवों की तस्वीर कुछ और ही होती।
कैसे तैयार होती है सुतली...गेहूं की फसल कटने और धान की रोपाई के बीच का समय ही सनई की खेती के लिए उपयुक्त होता है। कटी सनई को तालाबों के पानी में डुबो दिया जाता है। एक सप्ताह के बाद सड़ जाने पर इसे धोया जाता है। फिर बाहर निकालकर धूप में सुखाया जाता है और इसके बाद सनई का रेशा अलग कर लिया जाता है। इस रेशे को ही सन कहते हैं। सुतली इसी से बनाई जाती है। सन को सुखाने के बाद कुछ लोग लकड़ी की तकली तो कुछ गुडगुडी से कताई करके धागा बनाते हैं। इस धागे को दस से पंद्रह घंटे पानी में भिगोते हैं। इसके बाद भीगे हुए धागे को लकड़ी के हथौड़े से पीटा जाता है। फिर तैयार धागों से बांस की दो फट्ठियों के सहारे बने गुडगुडी यंत्र से सुतली बनाई जाती है। सुतली में चमक के लिए मैदा का लेप सुतली में लगाकर धूप में सुखाया जाता है।
अन्य वस्तुएं भी बनाई जाती हैं सन से
सनई और पटसन का उपयोग फैशनेबुल बैग, कालीन, कपड़े बनाने में होता है। सुतली से मोटी रस्सियां, चटाई और पाल भी बनाए जाते हैं। दुदही और दुबौली में हर दिन इसका बाजार भी लगता है।
कठिन परिश्रम के बाद मिलता है मुनाफा
पटसन और सनई से तैयार रस्सियां बनाने में पूंजी कम लगती है लेकिन श्रम अधिक। दो लोग मिलकर एक दिन में दस किलो सुतली तैयार कर लेते हैं। इसे सौ रुपये किलो की दर से बेंचने पर 400 से 450 रुपये मुनाफा मिल जाता है। इस तरह 200-250 रुपये प्रत्येक को मिल जाता है। सन बाजार से खरीदने पर लाभ आधा हो जाता है।
लोहरपट्टी निवासी नथुनी प्रसाद बताते हैं कि बहुत पहले से उनके घर में यह कार्य होता है। उस परंपरा को आज भी निभा रहे हैं। लाभ कम होने के कारण जरुरत के कई कार्य नहीं हो पाते।
इसी गांव के नेऊर कहते हैं कि लाभ कम होने के कारण व्यवसाय रास नहीं आ रहा। कोई विकल्प न होने के कारण इसे करना पड़ता है।
दुबौली बाजार निवासी गुनई कुशवाहा कहते हैं कि सरकारी इमदाद मिले तो इस व्यवसाय में क्रांतिकारी परिवर्तन आ सकता है। लोगों को रोजगार मिलेगा और उनकी आर्थिक दशा सुधरेगी।
लोहरपट्टी निवासिनी महंगी देवी कहती हैं कि यह कार्य परिवार के सभी लोग मिलजुलकर करते हैं। यदि सरकार इस व्यवसार की ओर ध्यान दे, तो इस क्षेत्र के लोगों की तकदीर बदल जाए। पिपरा निवासी मोहर्रम, लोहरपट्टी निवासी सुभाष, जगरनाथ, रामजीत आदि जनप्रतिनिधियों को कोसते हुए कहते हैं कि यदि इन्होंने ध्यान दिया होता तो यहां की युवापीढ़ी को महानगरों के लिए पलायन नहीं करना पड़ता।
दुदही (कुशीनगर)। वैसे तो सुतली व्यवसाय दुदही क्षेत्र के लोगों के लिए रोजगार का बेहतर विकल्प है। यह व्यवसाय कम खर्च में अधिक मुनाफा देने की कूबत रखता है। लेकिन शासन स्तर पर इसे प्रोत्साहन न मिलने की वजह से यह उद्योग का रूप नहीं ले पा रहा है। आज भी इस क्षेत्र के लगभग डेढ़ दर्जन परिवारों की आजीविका सुतली व्यवसाय पर निर्भर है। इनकी बनाई रस्सियां उत्तर प्रदेश के अलावा अन्य प्रदेशों और नेपाल तक के थोक कारोबारी खरीदने आते हैं।
क्षेत्र के दुबौली, चाफ, जंगल लाला छपरा, लोहरपट्टी, बतरौली धुरखड़वा, मिश्रौली, रामपुर, ठाड़ीभार, गोड़रिया, नरहवा, नौगहवां, लुअठहां, पडरौन मडुरही, बांसगांव, शाहपुर, पिपरा सहित लगभग दो दर्जन गांव हैं, जहां के अधिकतर लोग पटसन (पटुआ) और सनई से रस्सी तैयार करते हैं। यह व्यवसाय परंपरागत तरीके से संचालित होता है। दुदही तथा इसके आस-पास के बाजारों में रस्सी का बाजार भी लगता है। इनकी तैयार की गई रस्सियों से चारपाई बुनने से लेकर कालीन, चटाई, पाल और मोटी रस्सियां बनाई जाती हैं। सनई से सुतली तैयार की जाती है। रस्सियां तैयार करने के बाद उसे गोदाम में इकट्ठा करते जाते हैं और फिर बाहरी व्यापारियों के हाथों इन्हें बेंच देते हैं। व्यवसायी बताते हैं कि मुजफ्फरनगर, मेरठ, बुलंदशहर, आजमगढ़, फैजाबाद, दिल्ली, हिमांचल प्रदेश और नेपाल के थोक कारोबारी यहां रस्सी का व्यापार करने आते हैं। इन गांवों के अधिकतर लोगों की आजीविका रस्सी व्यवसाय पर निर्भर है। यदि जनप्रतिनिधियों ने इसे उद्योग का रूप देने के लिए प्रयास किया होता तो आज इन गांवों की तस्वीर कुछ और ही होती।
कैसे तैयार होती है सुतली...गेहूं की फसल कटने और धान की रोपाई के बीच का समय ही सनई की खेती के लिए उपयुक्त होता है। कटी सनई को तालाबों के पानी में डुबो दिया जाता है। एक सप्ताह के बाद सड़ जाने पर इसे धोया जाता है। फिर बाहर निकालकर धूप में सुखाया जाता है और इसके बाद सनई का रेशा अलग कर लिया जाता है। इस रेशे को ही सन कहते हैं। सुतली इसी से बनाई जाती है। सन को सुखाने के बाद कुछ लोग लकड़ी की तकली तो कुछ गुडगुडी से कताई करके धागा बनाते हैं। इस धागे को दस से पंद्रह घंटे पानी में भिगोते हैं। इसके बाद भीगे हुए धागे को लकड़ी के हथौड़े से पीटा जाता है। फिर तैयार धागों से बांस की दो फट्ठियों के सहारे बने गुडगुडी यंत्र से सुतली बनाई जाती है। सुतली में चमक के लिए मैदा का लेप सुतली में लगाकर धूप में सुखाया जाता है।
अन्य वस्तुएं भी बनाई जाती हैं सन से
सनई और पटसन का उपयोग फैशनेबुल बैग, कालीन, कपड़े बनाने में होता है। सुतली से मोटी रस्सियां, चटाई और पाल भी बनाए जाते हैं। दुदही और दुबौली में हर दिन इसका बाजार भी लगता है।
कठिन परिश्रम के बाद मिलता है मुनाफा
पटसन और सनई से तैयार रस्सियां बनाने में पूंजी कम लगती है लेकिन श्रम अधिक। दो लोग मिलकर एक दिन में दस किलो सुतली तैयार कर लेते हैं। इसे सौ रुपये किलो की दर से बेंचने पर 400 से 450 रुपये मुनाफा मिल जाता है। इस तरह 200-250 रुपये प्रत्येक को मिल जाता है। सन बाजार से खरीदने पर लाभ आधा हो जाता है।
लोहरपट्टी निवासी नथुनी प्रसाद बताते हैं कि बहुत पहले से उनके घर में यह कार्य होता है। उस परंपरा को आज भी निभा रहे हैं। लाभ कम होने के कारण जरुरत के कई कार्य नहीं हो पाते।
इसी गांव के नेऊर कहते हैं कि लाभ कम होने के कारण व्यवसाय रास नहीं आ रहा। कोई विकल्प न होने के कारण इसे करना पड़ता है।
दुबौली बाजार निवासी गुनई कुशवाहा कहते हैं कि सरकारी इमदाद मिले तो इस व्यवसाय में क्रांतिकारी परिवर्तन आ सकता है। लोगों को रोजगार मिलेगा और उनकी आर्थिक दशा सुधरेगी।
लोहरपट्टी निवासिनी महंगी देवी कहती हैं कि यह कार्य परिवार के सभी लोग मिलजुलकर करते हैं। यदि सरकार इस व्यवसार की ओर ध्यान दे, तो इस क्षेत्र के लोगों की तकदीर बदल जाए। पिपरा निवासी मोहर्रम, लोहरपट्टी निवासी सुभाष, जगरनाथ, रामजीत आदि जनप्रतिनिधियों को कोसते हुए कहते हैं कि यदि इन्होंने ध्यान दिया होता तो यहां की युवापीढ़ी को महानगरों के लिए पलायन नहीं करना पड़ता।