हाथरस। टैक्स की मार और ट्रांसपोटेशन की समस्या की वजह से हाथरस के रंग-गुलाल उद्योग की चमक दिन-प्रतिदिन फीकी पड़ती जा रही है। करीब 70 साल पुराना यह कारोबार सरकारी प्रोत्साहन के अभाव में दम तोड़ता जा रहा है। कारोबार चूंकि सीजनेविल है, इसलिए प्रशिक्षित लेबर भी यहां से पलायन करती जा रही है। इतना ही नहीं यहां के कुछ कारोबारी भी अन्य प्रदेशों में अपना कारोबार जमा रहे हैं। हाथरसी रंग-गुलाल की धाक दूर-दूर तक है। देश-विदेश में हाथरसी रंग-गुलाल जाता है। फिल्मी दुनिया में भी होली के मौके पर हाथरसी रंग बरसता है, लेकिन पिछले कुछ सालों से इस कारोबार की चमक धीमी पड़ती जा रही है। इसका मुख्य कारण टैक्स की मार और ट्रांसपोटेशन की समस्या है। रंग बनाने के लिए प्योर कलर अहमदाबाद और मुंबई से आते हैं। उसके बाद स्टार्च व ग्लोबल साल्ट मिलाकर इसे रिड्यूज कर दिया जाता है और यह रंग बाजार में बिकता है। बाजार में जिस क्वालिटी के रंग की डिमांड होती है, उस क्वालिटी का रंग बनाया जाता है। स्टार्च में रंग मिलाकर गुलाल तैयार किया जाता है। यहां छोटे-बडे़ सब मिलाकर रंग-गुलाल की करीब डेढ़ दर्जन फैक्ट्रियां हैं। कुल मिलाकर 20 हजार लोग इस कारोबार से प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ हुए हैं। इस कारोबार के पिछड़ने का एक कारण यहां के गलीचा कारोबार का उजड़ना भी है। गलीचों की रंगाई के लिए काफी रंग इन फैक्ट्रियों से जाता था, लेकिन काफी गलीचा फैक्ट्रियां बंद हो र्गइं और रंग की खपत कम हो गई। इधर, सबसे बड़ी समस्या गुलाल पर टैक्स की है। गुलाल पर इस प्रदेश में साढे़ 13 फीसदी टैक्स है, जबकि कई प्रदेशों में कोई टैक्स नहीं है। छत्तीसगढ़ में केवल चार फीसदी टैक्स है। रंग-गुलाल का काम सीजनेविल भी है। यहां यह धंधा 12 महीने फैक्ट्रियों में नहीं चलता। इसलिए प्रशिक्षित कारीगर यहां के बड़े शहरोें की तरफ पलायन कर गए हैं। यहां से मुंबई, रायपुर, जयपुर जैसे शहरों के अलावा विदेशों तक माल जाता है। पैकिंग और क्वालिटी में अभी भी हाथरस के रंग और गुलाल का कोई जवाब नहीं है। यहां नील भी बनता है। इसके बावजूद टैक्स की मार और ट्रांसपोटेशन की समस्या इस कारोबार की चमक फीकी कर रही है। कुछ रंग कारोबारी स्पष्ट रूप से यह कहते हैं कि शासन-प्रशासन इस कारोबार को बढ़ावा देने के लिए प्रोत्साहन तो दे नहीं रहा, उल्टे प्रदूषण के नाम पर छापामार कार्रवाई और होती है। इससे कारोेबार पर विपरीत असर पड़ता है।