हाथरस। शहर में 80 साल पुराना दाल उद्योग अपना अस्तित्व बचाने को जूझ रहा है। बीते एक दशक में आलू का क्रेज बढ़ने से दलहन की पैदावार क्या गिरी, दाल मिल मालिकों के लिए यह कारोबार घाटे का सौदा बन गया। नतीजा, अब तक आधे से ज्यादा दाल मिलों का अस्तित्व ही खत्म हो चुका है, जबकि बाकी मिलों के कारोबार पर भी बुनियादी सुविधाओं की कमी और करों के बोझ का ग्रहण लगा हुआ है। 80 साल पहले शहर में जब दाल उद्योग की शुरुआत हुई तो उस समय यह क्षेत्र दलहन की पैदावार के मामले में काफी संपन्न था, मगर बीते डेढ़ दशक में दलहनी खेती पर जैसे-जैसे आलू की पैदावार हावी हुई, मिलों के सामने कच्चे माल का संकट खड़ा होने लगा। बीते 11 सालों में तो मिलें कच्चे माल यानी दलहन के लिए पूरी तरह दिल्ली, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान जैसे राज्यों पर निर्भर होकर रह गई हैं। यहां से 25 फीसदी ही दलहन का इंतजाम हो पाता है। ट्रेन की सुविधा के अभाव में सड़क मार्ग से दलहन मंगाने में तीन गुना से भी ज्यादा भाड़ा खर्च करना पड़ता है यानी जो माल 60 रुपये प्रति क्विंटल के भाड़े पर ट्रेन से यहां आ सकता है, उसके लिए 200 रुपये क्विंटल का भाड़ा देना पड़ता है। इस पर ढाई फीसदी मंडी शुल्क का बोझ और है, जबकि दूसरे राज्यों में दाल मंडी शुल्क से मुक्त है। हाथरस की दाल अन्य राज्यों की तुलना में कहीं ज्यादा महंगी हो गई है, जिससे दूसरे राज्यों में हाथरसी दाल की मांग भी बमुश्किल 15 से 20 फीसदी तक ही सिमट गई है। हाथरस से पूरे उत्तर प्रदेश के अलावा दिल्ली को भी बड़े पैमाने पर दाल की आपूर्ति होती थी, लेकिन सुविधा न होने के कारण दिल्ली ने पिछले कुछ समय में इस कारोबार पर अपना प्रभुत्व जमा लिया है।
शुरअआत में मिलों में हाथ की चक्कियों से दलहन से दाल तैयार होती थी। एक-एक मिल में 100-100 महिला और पुरुष इस काम में जुटते थे, लेकिन कुछ सालों बाद यहां की मिलों में पूरा उत्पादन मशीनरी से होने लगा, जिससे उन लोगों के लिए रोजगार के अवसर भी कम हो गए, जोकि इस उद्योग के भरोसे अपनी जीविका चलाते थे।
हालात की गंभीरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि डेढ़ दशक पूर्व ही इस शहर में दाल मिलों की संख्या 120 तक थी, लेकिन इनमें से 60 मिलें बदहाली की भेंट चढ़ चुकी हैं, जबकि बाकी 60 में से भी कुछ और बंद होने के कगार पर हैं।