हाथरस। शासन-प्रशासन द्वारा प्रोत्साहन व सुविधा न दिए जाने की वजह से यहां का रेडीमेड गारमेंट्स कारोबार पनप नहीं पाया। यह कारोबार फिलहाल यहां 10 हजार लोगों को रोजी-रोटी दे रहा है, लेकिन ट्रांसपोटेशन की परेशानी और लेबर की किल्लत ने इस कारोेबार को कुटीर उद्योग से आगे बढ़ने ही नहीं दिया। पिछले कुछ सालों से यहां लेबर बडे़ शहरों में पलायन कर गई है और अब तो कुछ कारोबारी भी यहां से बडे़ शहरोें की ओर रुख कर रहे हैं।
किसी समय में इस शहर में तीन बडे़-बडे़ टैक्सटाइल मिल थीं। जब मिल बंद हो गए तो यहां रेडीमेड गारमेंट्स कारोबार फल-फूल गया। घर-घर में लोगोें ने सिलाई-कढाई मशीनें लगा लीं और बच्चों की ड्रेस बनाने का धंधा यहां शुरू हो गया। बाहर का व्यापारी यहां आने लगा। 1980 में शुरू हुआ यह कारोबार यहां जोर-शोर से उठा और हाथरस का बाजार भी रेडीमेड गारमेंट्स के व्यापार में चमका। यहां बच्चों की ड्रेस बाबा सूट, शर्ट, फ्राक, स्कर्ट-टाप, शेरवानी, पाजामी, पठानी सूट, मिडी आदि बनते हैं। कपड़ा अहमदाबाद, सूरत, मुंबई, दिल्ली से आता है। यहां का माल दूर-दूर तक जाता है। रेडीमेड गारमेंट्स की यहां करीब 60 रजिस्टर्ड फर्म हैं। 10 हजार लोग प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष रूप से इस धंधे से जुडे़ हैं। इस धंधे से जुडे़ उद्यमियों के सामने सबसे बड़ी समस्या ट्रांसपोटेशन की है। बडे़ शहरों तक माल पहुंचने के लिए कई-कई दिन लग जाते हैं और इसका सीधा असर यहां के कारोबार पर पड़ता है। ट्रेन से माल भेजने की सुविधा नहीं है। इधर, बाहर की लेबर इस छोटे शहर में काम करने नहीं आ रही। यह काम सीजनेविल भी हो गया है। ऐसे में कारीगर और अन्य लेबर यहां से पलायन कर रही है। इतना ही नहीं इस कारोबार का यहां पूरी तरह से मशीनीकरण नहीं हो पाया। आज भी यह कारोबार यहां कुटीर उद्योग के रूप में चल रहा है। इससे ज्यादा इसका विकास नहीं हो पाया।