हाथरस/हसायन। हसायन की ऐतिहासिक झील किसी जमाने में अपनी खूबसूरती के लिए जानी जाती थी। यहां देशी-विदेशी पक्षियों का कलरव गूंजता था, जिसे देखकर यहां के लोगों का मन उमंग और रोमांच से भर जाता था, लेकिन सरकारी तंत्र ने इस झील से नजरें क्या फेरीं, माफिया ने तो इस झील की जमीन को अपनी बपौती समझ लिया। यह झील अब पूरी तरह माफिया के कब्जे में है। करीब चार साल पहले तत्कालीन डीएम डॉ. पिंकी जोवल ने इस झील को ‘बर्ड सेंचुरी’ यानि पक्षी बिहार में तब्दील करने की पहल की। वन विभाग के जरिए इसके लिए करीब डेढ़ करोड़ का प्रोजेक्ट बनाकर सरकार को भिजवाया गया। इस जमीन को संरक्षित कराने के लिए यहां वन विभाग के जरिए बड़े पैमाने पर पौध रोपण कराया गया और इसकी हिफाजत का जिम्मा वन विभाग को दे दिया गया, लेकिन खनन माफिया और शिकारियों के आगे नतमस्तक रहने वाले वन विभाग के अफसर अपनी इस जिम्मेदारी को भूल गए और इस ऐतिहासिक स्थल को छोड़ दिया शिकारियों और खनन माफिया की मनमानी का शिकार बनने को।
वन विभाग और प्रशासन ने जिस तरह इस ऐतिहासिक धरोहर से नजरें फेर रखी हैं, उससे साबित हो जाता है कि इन दोनों की शह पर ही यहां शिकारियों और खनन माफिया का राज चलता है। वन विभाग नहीं चाहता कि यह जगह खूबसूरत पक्षी बिहार बन जाए, क्योंकि उसके मुलाजिमों को माफिया से मिलने वाला मुनाफा जो खत्म हो जाएगा।
माफिया इस जमीन से धड़ल्ले से कीमती मिट्टी की खुदाई करके बाजार में बेच रहे हैं और मोटी कमाई कर रहे हैं। माफिया के पास जमीन से मिट्टी खोदने की न तो कोई परमीशन है और न ही वह इसकी रायल्टी भरते हैं, फिर भी मिट्टी का अवैध खनन धड़ल्ले से जारी है। और तो और माफिया सालों से झील के आसपास की जमीन को खेतीबाड़ी के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं, जबकि हसायन का रजवाड़ा खत्म होने के बाद यह जमीन प्रशासन और वन विभाग की संपत्ति है। इस ऐतिहासिक झील पर निरीह पक्षियों का शिकार भी खूब होता रहा है। शिकारी झील के आसपास जहरीला दाना रख देते हैं, जिसे चुगने से देशी-विदेशी पक्षी अचेत हो जाते हैं, जिसके बाद वह इन्हें मुंहमांगी कीमतों पर मांसाहार के लिए बाजार में बेच देते हैं या फिर एयर गन से उन्हें मौत के घाट उतार दिया जाता है। पिछले साल भी पक्षियों के अवैध शिकार के मामलों को लेकर काफी हायतौबा मची, लेकिन वन विभाग ने इसे कोई तवज्जो नहीं दी। ऐतिहासिक झील की सरजमीं पर चल रहे मिट्टी के काले धंधे और अवैध शिकार की खबर वन विभाग को भी है, लेकिन माफिया से मिल रही रिश्वत ने इनके मुंह सिल रखे हैं और आंखों पर पर्दा डाल रखा है। यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं, जब इस झील का रहा-सहा अस्तित्व भी मिट जाएगा और झील इतिहास बनकर रह जाएगी।
बर्ड सेंचुरी का जो प्रोजेक्ट शासन को गया है, उसमें इस झील की जमीन को कांटेदार बाड़ से कवर करने, इस क्षेत्र में ताड़ व नारियल के पेड़ लगाने, कृत्रिम ग्रास लगाने, पक्षियों की सुरक्षा के लिए वन विभाग की चौकी स्थापित करने, रात में शिकारियों की निगरानी के लिए हाईमास्क लाइटें लगाने और मचान बनवाने के अलावा झील का सौंदर्यीकरण कराने की भी योजना थी। इस योजना को दो साल के अंदर अमलीजामा पहनाया जाना था, लेकिन लखनऊ जाने के बाद वन विभाग के अफसरों ने इसकी पैरवी में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।
इस झील को जाऊ नहर से हसायन की तरफ जाने वाले बंबे से पानी मिलता है। करीब डेढ़ दशक पहले तक इस झील पर साइबेरियन पक्षी, आस्ट्रेलियन सारस और चिड़िया के अलावा और भी कई खूबसूरत पक्षी आते थे।
यह झील एटा की अवागढ़ रियासत के राजा सूरजभान की सल्तनत का हिस्सा थी। पुराने समय से इस झील में हंसों का जमघट रहता था, इसलिए इस जगह का नाम हसायन पड़ा। कहते हैं कि राजा इस झील के किनारे हर तीज-त्योहार को मेले लगवाते थे, जिसमें पूरे क्षेत्र के लोग हिस्सा लेते थे।