महेवा/ऊसराहार(इटावा)। मूल रूप से बम्हौरा गांव के निवासी महेवा में रहने वाले 81 वर्षीय बाबूराम शुक्ला कहते हैं कि बेशक कि शोरावस्था में वह आजादी की जंग में योगदान न कर सके हों परंतु आजादी के दीवानों की झलक देखने को खूब उतावले रहते थे। आजादी के दीवानों का अक्सर महेवा मंदिर, लखना और बकेवर में रुकना होता था। उनके ठहरे होने की सूचना पर वह अपने दोस्तों के साथ छुप छुपकर उनसे मिलने जाया करते थे। जिस दिन देश आजाद हुआ उस दिन पूरे बम्हौरा गांव के लोगों ने घरों को मोमबत्तियों की जगमगाहट से रोशन किया था। हर नागरिक में उम्मीद व उमंग थी कि गुलामी से छुटकारा मिलने से अब अपने देश में सुख चैन से जीवन यापन करेंगे परंतु आज के हालात देखकर बेहद कोफ्त होती है। भ्रष्टाचार व कमीशनखोरी ने ऊपर से लेकर नीचे तक पैर पसार लिए। आम आदमी का जीना मुश्किल हो गया। सबसे कष्टदायक स्थिति यह है कि आज के नेताओं ने जाति और धर्म की खाई खोदकर अपना हित सिद्ध किया है। समाज में जातिवाद का बीज इसकदर बो दिया कि भाईचारा समाप्त हो गया। लोग एकदूसरे से घृणा करने लगे। जबकि आजादी के पहले ऐसा नहीं था। सब मिलजुलकर रहते थे। समरसता का वातावरण था। अंग्रेज तो पराए थे और वे अपना हित साधने के लिए फूट की राजनीति करते थे। आज के राजनेता भी उसी नीति पर चल रहे हैं।
महेवा/ऊसराहार(इटावा)। मूल रूप से बम्हौरा गांव के निवासी महेवा में रहने वाले 81 वर्षीय बाबूराम शुक्ला कहते हैं कि बेशक कि शोरावस्था में वह आजादी की जंग में योगदान न कर सके हों परंतु आजादी के दीवानों की झलक देखने को खूब उतावले रहते थे। आजादी के दीवानों का अक्सर महेवा मंदिर, लखना और बकेवर में रुकना होता था। उनके ठहरे होने की सूचना पर वह अपने दोस्तों के साथ छुप छुपकर उनसे मिलने जाया करते थे। जिस दिन देश आजाद हुआ उस दिन पूरे बम्हौरा गांव के लोगों ने घरों को मोमबत्तियों की जगमगाहट से रोशन किया था। हर नागरिक में उम्मीद व उमंग थी कि गुलामी से छुटकारा मिलने से अब अपने देश में सुख चैन से जीवन यापन करेंगे परंतु आज के हालात देखकर बेहद कोफ्त होती है। भ्रष्टाचार व कमीशनखोरी ने ऊपर से लेकर नीचे तक पैर पसार लिए। आम आदमी का जीना मुश्किल हो गया। सबसे कष्टदायक स्थिति यह है कि आज के नेताओं ने जाति और धर्म की खाई खोदकर अपना हित सिद्ध किया है। समाज में जातिवाद का बीज इसकदर बो दिया कि भाईचारा समाप्त हो गया। लोग एकदूसरे से घृणा करने लगे। जबकि आजादी के पहले ऐसा नहीं था। सब मिलजुलकर रहते थे। समरसता का वातावरण था। अंग्रेज तो पराए थे और वे अपना हित साधने के लिए फूट की राजनीति करते थे। आज के राजनेता भी उसी नीति पर चल रहे हैं।