सुरेमनपुर। तहसील प्रशासन ने मानगढ़ के अग्नि पीड़ितों को सिर्फ चार-चार हजार रुपये सहायता राशि प्रदान कर अपने जिम्मेदारियों की इतिश्री कर लिया। पीड़ितों के लिए यह सहायता ऊंट के मुंह में जीरा के समान ही तो है। हर साल आग से हजारों परिवार बेघर हो जाते हैं फिर भी शासन-प्रशासन अगलगी की घटनाओं पर रोक लगाने के लिए या भारी तबाही रोकने की दिशा में कोई स्थाई व्यवस्था नहीं करता है। अगलगी में अपना सबकुछ खो देने के बाद पीड़ित और उनके बाल-बच्चे भूखे पेट दिन काटने को विवश हो जाते हैं। पूरा परिवार महीनों खुलेे आसमान के नीचे रहने को विवश रहता है। इस समस्या की तरफ जनप्रतिनिधियों का भी ध्यान नहीं जाता है।
गौरतलब है कि मानगढ के 27 अग्निपीड़ितों ने तिरपाल के नीचे किसी तरह अपना गुजर-बसर करना शुरू कर दिया। सहायता के रूप में प्रशासन से मात्र चार-चार हजार रुपये ही मिले हैं। भीषण महंगाई के युग में इस युग में पीड़ित चार हजार में कैसे अपने जीवन को चला सकेंगे ये सोचने वाली बात है। सालों खून-पसीने से कमाकर घर में रखा खाद्यान्न, नगदी और जेवर को अग्निदेव ने चंद मिनटों में ही राख कर दिया। अब पेट की भूख और बच्चों की पढ़ाई के साथ ही तन कैसे ढकेगा? यह यक्ष प्रश्न भी पीड़ितों के सामने मुंह खोले खड़ा है। ग्रामीणों का कहना है कि द्वाबा में हर साल अग्निकांड से जब सैकड़ों परिवार बेघर हो जाते हैं तो ऐसे में इन पीड़ितों के लिए सरकार कोई ठोस व्यवस्था क्यों नहीं करती? जनप्रतिनिधि बराबर लोगों से द्वाबा के विकास की बातें तो करते हैं लेकिन जब हर साल द्वाबा में तबाही मचती है तो ये लोग कहां चले जाते हैं। द्वाबा का गरीब तबका रोटी, कपड़ा और पक्के मकान के बिना कैसे विकास की मुख्य धारा में आ सकता है। इस संबंध में मधुबन यादव, वीरेंद्र साहनी, सुरेंद्र साहनी, सुरेश साहनी, लगनदेव साहनी आदि का कहना है कि द्वाबा को अग्निकांड से तभी निजात मिलेगी जब सभी के पास पक्के रिहायशी आवास होंगे। लेकिन आलम तो यह है कि इंदिरा और महामाया के तहत जो राशि मिलती है उस आवास का आधा पैसा अधिकारियों और कर्मचारियों को घूस के रूप में बंट जाता है और जो आधा पैसा मिलता है उससे दीवार तो पक्की बन जाती है लेकिन छत नहीं बन पाती है।
सुरेमनपुर। तहसील प्रशासन ने मानगढ़ के अग्नि पीड़ितों को सिर्फ चार-चार हजार रुपये सहायता राशि प्रदान कर अपने जिम्मेदारियों की इतिश्री कर लिया। पीड़ितों के लिए यह सहायता ऊंट के मुंह में जीरा के समान ही तो है। हर साल आग से हजारों परिवार बेघर हो जाते हैं फिर भी शासन-प्रशासन अगलगी की घटनाओं पर रोक लगाने के लिए या भारी तबाही रोकने की दिशा में कोई स्थाई व्यवस्था नहीं करता है। अगलगी में अपना सबकुछ खो देने के बाद पीड़ित और उनके बाल-बच्चे भूखे पेट दिन काटने को विवश हो जाते हैं। पूरा परिवार महीनों खुलेे आसमान के नीचे रहने को विवश रहता है। इस समस्या की तरफ जनप्रतिनिधियों का भी ध्यान नहीं जाता है।
गौरतलब है कि मानगढ के 27 अग्निपीड़ितों ने तिरपाल के नीचे किसी तरह अपना गुजर-बसर करना शुरू कर दिया। सहायता के रूप में प्रशासन से मात्र चार-चार हजार रुपये ही मिले हैं। भीषण महंगाई के युग में इस युग में पीड़ित चार हजार में कैसे अपने जीवन को चला सकेंगे ये सोचने वाली बात है। सालों खून-पसीने से कमाकर घर में रखा खाद्यान्न, नगदी और जेवर को अग्निदेव ने चंद मिनटों में ही राख कर दिया। अब पेट की भूख और बच्चों की पढ़ाई के साथ ही तन कैसे ढकेगा? यह यक्ष प्रश्न भी पीड़ितों के सामने मुंह खोले खड़ा है। ग्रामीणों का कहना है कि द्वाबा में हर साल अग्निकांड से जब सैकड़ों परिवार बेघर हो जाते हैं तो ऐसे में इन पीड़ितों के लिए सरकार कोई ठोस व्यवस्था क्यों नहीं करती? जनप्रतिनिधि बराबर लोगों से द्वाबा के विकास की बातें तो करते हैं लेकिन जब हर साल द्वाबा में तबाही मचती है तो ये लोग कहां चले जाते हैं। द्वाबा का गरीब तबका रोटी, कपड़ा और पक्के मकान के बिना कैसे विकास की मुख्य धारा में आ सकता है। इस संबंध में मधुबन यादव, वीरेंद्र साहनी, सुरेंद्र साहनी, सुरेश साहनी, लगनदेव साहनी आदि का कहना है कि द्वाबा को अग्निकांड से तभी निजात मिलेगी जब सभी के पास पक्के रिहायशी आवास होंगे। लेकिन आलम तो यह है कि इंदिरा और महामाया के तहत जो राशि मिलती है उस आवास का आधा पैसा अधिकारियों और कर्मचारियों को घूस के रूप में बंट जाता है और जो आधा पैसा मिलता है उससे दीवार तो पक्की बन जाती है लेकिन छत नहीं बन पाती है।