मंत्र शब्दों, अक्षरों से संबंधित एक ऐसा विज्ञान है कि उसके संपर्क में आते ही किसी चमत्कारिक शक्ति का बोध होता है। यही शक्ति सामान्य इंसान को विशेष बना देती है। समझा जाता है कि पुराने समय में योगी, ऋषि और महापुरुषों ने मंत्र बल से पृथ्वी, देवलोक और ब्रह्मांड से संपर्क साधा और अनंत शक्तियां प्राप्त कीं। वह इतने समर्थ बन गए कि किसी भी पदार्थ को अपनी इच्छा के अनुरूप, शक्ति को पदार्थ और पदार्थ को शक्ति में बदल देते थे।
शाप और वरदान को मंत्र का ही प्रभाव माना जाता है। किसी का रोग पल भर में अच्छा कर देना और किसी भी क्षण करोड़ों मील दूर की बात जान लेना, शरीर की 72 हजार नाड़ियों के एक-एक जोड़ की जानकारी लेने की अलौकिक शक्ति मंत्र में ही है। इसलिए भारतीय तत्वदर्शन में मंत्र शक्ति पर जितने शोध हुए हैं, उतने किसी पर भी नहीं।
मंत्र का सीधा संबंध उच्चारण या ध्वनि से है। इसे 'ध्वनि विज्ञान' भी कह सकते हैं। जो अनुसंधान हुए हैं उनके अनुसार, वह वक्त करीब ही है, जब ध्वनि विज्ञान ऋषियों जैसे ही काम करने लगेगा। उदाहरण के लिए 'ट्रांसड्यूसर' यंत्र से सूक्ष्मतम आपरेशन किए जा सकते है। डॉ. फ्रिस्टलाव ने एक ऐसा यंत्र (अलट्रासोनोरेटर) बनाया है, जो दो रासायनिक द्रव्यों को कुछ सेकेंड में ही मिला सकता है।
कौत्स मुनि ने मंत्रों को अनर्थक माना है। अनर्थक यानी जिसका कोई अर्थ न हो। ध्वनि प्रवाह को, शब्द गुंथन को महत्व दिया जाना चाहिए। 'ह्रीं, श्रीं, क्लीं, ऐं' आदि बीज मंत्रों के अर्थ से नहीं, ध्वनि से ही प्रयोजन सिद्ध होता है। संगीत का शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य पर जो असाधारण प्रभाव पड़ता है, उससे समस्त विज्ञान जगत परिचित है।
निश्चित गति से शीशे के गिलास के पास ध्वनि पैदा करें, तो वह टूट जाएगा। पुल पर चलते हुए सैनिकों को कदम मिलाकर चलने की ध्वनि नहीं करने दी जाती, क्योंकि तालबद्धता से पुल गिर सकता है। इसी ध्वनि विज्ञान के आधार पर मंत्रों की रचना हुई है। उनके अर्थों का उतना महत्व नहीं है, इसलिए कौत्स मुनि ने उन्हें 'अनर्थक' बताया है।
शब्द शक्ति का स्फोट मंत्र शक्ति की ही प्रक्रिया है, लेकिन रहस्य में लिपटी हुई। अणु विस्फोट से उत्पन्न होने वाली भयावह शक्ति की जानकारी हम सभी को है। शब्द की एक शक्ति सत्ता है। उसके कंपन भी चिरंतन घटकों के सम्मिश्रण से बनते हैं। इन शब्द कंपन घटकों का विस्फोट भी अणु विखंडन की तरह ही हो सकता है।
मंत्र, योग साधना के उपचारों के पीछे लगभग वैसी ही विधि व्यवस्था रहती है। मंत्रों की शब्द रचना का गठन दिव्यदृष्टा मनीषियों ने इस प्रकार किया है कि उसका उपात्मक, होमात्मक तथा दूसरे तप साधनों तथा कर्मकांडों के सहारे अभीष्ट स्फोट किया जा सके। वर्तमान बोलचाल में विस्फोट शब्द जिस अर्थ में प्रयुक्त होता है, लगभग उसी अर्थ में संस्कृत में स्फोट का प्रयोग किया जाता है। मंत्र-साधना वस्तुतः शब्द शक्ति का विस्फोट ही है।
शब्द स्फोट से ऐसी ध्वनि तरंगें उत्पन्न होती हैं, जिन्हें कानों की श्रवण शक्ति से बाहर की कहा जा सकता है। शब्द आकाश का विषय है, इसलिए मांत्रिक का कार्यक्षेत्र आकाश तत्व रहता है। योगी वायु उपासक है, उसे प्राण शक्ति का संचय, वायु के माध्यम से करना पड़ता है। इस दृष्टि से मांत्रिक को योगी से भी वरिष्ठ कहा जा सकता है। सच्चा मांत्रिक, योगी से कम नहीं। कुछ अधिक ही शक्तिशाली हो सकता है।
मंत्र आराधना में शब्द शक्ति का विस्फोट होता है, विस्फोट में गुणन शक्ति है। मंत्र में सर्वप्रथम देव-स्थापना की सघन निष्ठा उत्पन्न की जाती है। यह भाव चुम्बकत्व है, श्रद्धा शक्ति के उद्भव का प्रथम चरण है। इस आरंभिक उपार्जन का शक्ति गुणन करती चली जाती है और छोटा सा बीज, विशाल वृक्ष बन जाता है।
विचार का चुम्बकत्व सर्वविदित है। इष्टदेव की मंत्र अधिपति की शक्ति एवं विशेषताओं का स्तवन, पूजन के साथ स्मरण किया जाता है और अपने विश्वास में उसमें सर्वशक्ति सत्ता एवं अनुग्रह पर विश्वास जमाया जाता है। निर्धारित कर्मकांड विधि-विधान के द्वारा तथा तप साधना के द्वारा मंत्र की गुह्य शक्ति के हो जाने का भरोसा, दीर्घकालीन साधना द्वारा साधक के मन क्षेत्र में परिपक्व बनता है। यह सब निष्ठाएं मिलकर मंत्र की भाव प्रक्रिया को परिपूर्ण चुुम्बकत्व से परिपूर्ण कर देती है।
तंत्र तप में नियत शब्दों का निर्धारित क्रम से देर तक निरंतर उच्चारण करना पड़ता है। इस गति प्रवाह के दो आधार हैं। एक भाव और दूसरा शब्द। मंत्र के अंतराल में सन्निहित भावना का निर्धारित प्रवाह एक भाववृत्त बना लेता है। वह इतना प्रचंड होता है कि साधक के व्यक्तित्व को ही पकड़ और जकड़कर उसे अपनी ढलान में ढाल ले। उच्चारण से उत्पन्न ध्वनि भी ऐसी ही प्रचंड होती है कि उसका स्फोट एक घेरा डालकर उच्चारणकर्ता को अपने घेरे में कस ले। भाववृत्त अंतरंग वृत्तियों पर शब्दवृत्त बहिरंग प्रवृत्तियां इस प्रकार आच्छादित हो जाती हैं कि मनुष्य के अभीष्ट स्तर को मोड़ा-मरोड़ा या ढाला जा सके।
मंत्र शब्दों, अक्षरों से संबंधित एक ऐसा विज्ञान है कि उसके संपर्क में आते ही किसी चमत्कारिक शक्ति का बोध होता है। यही शक्ति सामान्य इंसान को विशेष बना देती है। समझा जाता है कि पुराने समय में योगी, ऋषि और महापुरुषों ने मंत्र बल से पृथ्वी, देवलोक और ब्रह्मांड से संपर्क साधा और अनंत शक्तियां प्राप्त कीं। वह इतने समर्थ बन गए कि किसी भी पदार्थ को अपनी इच्छा के अनुरूप, शक्ति को पदार्थ और पदार्थ को शक्ति में बदल देते थे।
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शाप और वरदान को मंत्र का ही प्रभाव माना जाता है। किसी का रोग पल भर में अच्छा कर देना और किसी भी क्षण करोड़ों मील दूर की बात जान लेना, शरीर की 72 हजार नाड़ियों के एक-एक जोड़ की जानकारी लेने की अलौकिक शक्ति मंत्र में ही है। इसलिए भारतीय तत्वदर्शन में मंत्र शक्ति पर जितने शोध हुए हैं, उतने किसी पर भी नहीं।
मंत्र का सीधा संबंध उच्चारण या ध्वनि से है। इसे 'ध्वनि विज्ञान' भी कह सकते हैं। जो अनुसंधान हुए हैं उनके अनुसार, वह वक्त करीब ही है, जब ध्वनि विज्ञान ऋषियों जैसे ही काम करने लगेगा। उदाहरण के लिए 'ट्रांसड्यूसर' यंत्र से सूक्ष्मतम आपरेशन किए जा सकते है। डॉ. फ्रिस्टलाव ने एक ऐसा यंत्र (अलट्रासोनोरेटर) बनाया है, जो दो रासायनिक द्रव्यों को कुछ सेकेंड में ही मिला सकता है।
कौत्स मुनि ने मंत्रों को अनर्थक माना है। अनर्थक यानी जिसका कोई अर्थ न हो। ध्वनि प्रवाह को, शब्द गुंथन को महत्व दिया जाना चाहिए। 'ह्रीं, श्रीं, क्लीं, ऐं' आदि बीज मंत्रों के अर्थ से नहीं, ध्वनि से ही प्रयोजन सिद्ध होता है। संगीत का शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य पर जो असाधारण प्रभाव पड़ता है, उससे समस्त विज्ञान जगत परिचित है।
निश्चित गति से शीशे के गिलास के पास ध्वनि पैदा करें, तो वह टूट जाएगा। पुल पर चलते हुए सैनिकों को कदम मिलाकर चलने की ध्वनि नहीं करने दी जाती, क्योंकि तालबद्धता से पुल गिर सकता है। इसी ध्वनि विज्ञान के आधार पर मंत्रों की रचना हुई है। उनके अर्थों का उतना महत्व नहीं है, इसलिए कौत्स मुनि ने उन्हें 'अनर्थक' बताया है।
शब्द शक्ति का स्फोट मंत्र शक्ति की ही प्रक्रिया है, लेकिन रहस्य में लिपटी हुई। अणु विस्फोट से उत्पन्न होने वाली भयावह शक्ति की जानकारी हम सभी को है। शब्द की एक शक्ति सत्ता है। उसके कंपन भी चिरंतन घटकों के सम्मिश्रण से बनते हैं। इन शब्द कंपन घटकों का विस्फोट भी अणु विखंडन की तरह ही हो सकता है।
मंत्र, योग साधना के उपचारों के पीछे लगभग वैसी ही विधि व्यवस्था रहती है। मंत्रों की शब्द रचना का गठन दिव्यदृष्टा मनीषियों ने इस प्रकार किया है कि उसका उपात्मक, होमात्मक तथा दूसरे तप साधनों तथा कर्मकांडों के सहारे अभीष्ट स्फोट किया जा सके। वर्तमान बोलचाल में विस्फोट शब्द जिस अर्थ में प्रयुक्त होता है, लगभग उसी अर्थ में संस्कृत में स्फोट का प्रयोग किया जाता है। मंत्र-साधना वस्तुतः शब्द शक्ति का विस्फोट ही है।
शब्द स्फोट से ऐसी ध्वनि तरंगें उत्पन्न होती हैं, जिन्हें कानों की श्रवण शक्ति से बाहर की कहा जा सकता है। शब्द आकाश का विषय है, इसलिए मांत्रिक का कार्यक्षेत्र आकाश तत्व रहता है। योगी वायु उपासक है, उसे प्राण शक्ति का संचय, वायु के माध्यम से करना पड़ता है। इस दृष्टि से मांत्रिक को योगी से भी वरिष्ठ कहा जा सकता है। सच्चा मांत्रिक, योगी से कम नहीं। कुछ अधिक ही शक्तिशाली हो सकता है।
मंत्र आराधना में शब्द शक्ति का विस्फोट होता है, विस्फोट में गुणन शक्ति है। मंत्र में सर्वप्रथम देव-स्थापना की सघन निष्ठा उत्पन्न की जाती है। यह भाव चुम्बकत्व है, श्रद्धा शक्ति के उद्भव का प्रथम चरण है। इस आरंभिक उपार्जन का शक्ति गुणन करती चली जाती है और छोटा सा बीज, विशाल वृक्ष बन जाता है।
विचार का चुम्बकत्व सर्वविदित है। इष्टदेव की मंत्र अधिपति की शक्ति एवं विशेषताओं का स्तवन, पूजन के साथ स्मरण किया जाता है और अपने विश्वास में उसमें सर्वशक्ति सत्ता एवं अनुग्रह पर विश्वास जमाया जाता है। निर्धारित कर्मकांड विधि-विधान के द्वारा तथा तप साधना के द्वारा मंत्र की गुह्य शक्ति के हो जाने का भरोसा, दीर्घकालीन साधना द्वारा साधक के मन क्षेत्र में परिपक्व बनता है। यह सब निष्ठाएं मिलकर मंत्र की भाव प्रक्रिया को परिपूर्ण चुुम्बकत्व से परिपूर्ण कर देती है।
तंत्र तप में नियत शब्दों का निर्धारित क्रम से देर तक निरंतर उच्चारण करना पड़ता है। इस गति प्रवाह के दो आधार हैं। एक भाव और दूसरा शब्द। मंत्र के अंतराल में सन्निहित भावना का निर्धारित प्रवाह एक भाववृत्त बना लेता है। वह इतना प्रचंड होता है कि साधक के व्यक्तित्व को ही पकड़ और जकड़कर उसे अपनी ढलान में ढाल ले। उच्चारण से उत्पन्न ध्वनि भी ऐसी ही प्रचंड होती है कि उसका स्फोट एक घेरा डालकर उच्चारणकर्ता को अपने घेरे में कस ले। भाववृत्त अंतरंग वृत्तियों पर शब्दवृत्त बहिरंग प्रवृत्तियां इस प्रकार आच्छादित हो जाती हैं कि मनुष्य के अभीष्ट स्तर को मोड़ा-मरोड़ा या ढाला जा सके।
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