पंचतत्व से बने शरीर में दिव्य, देव सत्ता विद्यमान है। उसकी सामर्थ्य में कोई कमी नहीं। उसके ऊपर छाए कुसंस्कारों को हटाना और स्वच्छता अभियान हाथ में लेना है। उपासना के लिहाज से ईश्वर दर्शन का सर्वोत्तम रूप यह है कि भीतर बैठे परमात्मा की झांकी को झांका जाए। उपाय में एक दर्पण सामने रखना जरूरी है। उसमें अपनी जो छवि दिखे, उसे दिव्य देवालय मानें और भावना के आधार पर भीतर निराकार की स्थापना करें। दर्पण में खुद को देखते हुए समझें कि यह ईंट-चूने से बनी इमारत है। देवता इसके भीतर बैठा है।
निराकार है तो भी विश्व में, काया में सर्वत्र समाया हुआ है। काया में आत्मा की उपस्थिति का विश्वास दर्पण देखने की क्रिया का प्रथम चरण है। दूसरे चरण में उसे सर्व समर्थ और पवित्र होने की भावना का विकास करें। पूजा वेदी के पास जाते ही सबसे पहले स्वच्छता का काम करना है। पुजारी मंदिर में जाने से पहले स्नान करता और धुले कपड़े पहनता है। फिर देवालय के सभी उपकरणों की सफाई, प्रतिमा के आवरण आभूषणों को सुव्यवस्थित करता है, देवालय में बुहारी लगाता है और पूजा पात्रों को मांजता-धोता है। फिर पूजा शुरु करता है।
दर्पण में अपनी आकृति देख लेना भर पर्याप्त नहीं है। उसमें प्राण-प्रतिष्ठा जैसी भावना का समावेश करना चाहिए।पूजा का तीसरा चरण प्रतिमा की सजावट है। उसे भगवान का प्रतिनिधि मानकर पूजा उपचार की सामग्री अर्पित करना जरूरी है। सद्गुण ही आत्मदेव की सर्वोत्तम शोभा सज्जा है। बाहरी प्रकाश बाहरी क्षेत्र को प्रकाशित करता है, और आंतरिक प्रकाश अन्तःक्षेत्र को।
आत्म-ज्योति का दर्शन भाव नेत्रों से हृदय स्थान में करना चाहिए। उसका प्रकाश अंतराल की सभी दिव्य विभूतियों, सूक्ष्म शक्तियों को जागृत और आलोकित करती है। इतनी सी साधना दस मिनट में की जा सकती है। उसे आधे घंटे तक बढ़ाया भी जा सकता है। यह दर्पण हर काम में न लाया जाए। मात्र पूजा के लिए ही प्रयुक्त किया जाए। प्रातःकाल का समय सर्वोत्तम है।