आजाद भारत में ब्रिटिश हुकूमत को कोई अच्छा नहीं कहता है, लेकिन हिमाचल के कांगड़ा जिले के कुछ गांव ऐसे भी हैं, जहां आज भी लोग अंग्रेजों को याद करते हैं। रोज सुबह रेलगाड़ी की छुक-छुक से लोगों के दिन की शुरुआत होती है। यहां धार और दंगड़ गांवों तक पहुंचने के लिए सिर्फ रेलगाड़ी ही एकमात्र जरिया है। आज तक इन गांवों को सड़क तक नसीब नहीं हो सकी है।
सड़क, स्वास्थ्य और शिक्षा की मूलभूत सुविधाओं के अभाव में ये गांव खंडहर बनने लगे हैं। नई पीढ़ी यहां से पलायन कर रही है। गांव में बचे हैं तो सिर्फ बुजुर्ग। बरसात में ल्हासे गिरने के कारण धार-धंगड़ की लाइफ लाइन रेलगाड़ी भी चार महीने बंद हो जाती है। यहां की करीब ढाई हजार आबादी के लिए ये गांव ‘कालापानी’ बन जाते हैं। कांगड़ा के देहरा उपमंडल के धार-धंगड़ गांवों के लोग अपने इलाकों को काला पानी के नाम से पुकारते हैं। इनमें सड़क और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाएं हैं ही नहीं।
दुकान से दूध तक लेने के लिए लोगों को 6 किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है। राशन के लिए 10 किलोमीटर चंदुआ गांव जाना पड़ता है। तीन दुकानों वाले इन गांवों के दुकानदारों को सामान 12 किलोमीटर दूर रानीताल और अन्य जगह से ट्रेन में लाना पड़ता है। धार गांव में छोटी सी दुकान करने वाले बुजुर्ग रोशन लाल कहते हैं कि जब कोई बीमार हो जाए तो उसे पालकी या चारपाई में 10 किमी दूर सपड़ू या मसूर पीएचसी लाना पड़ता है। बेहतर इलाज के लिए नगरोटा सूरियां या टीएमसी जाना पड़ता है।
मदन लाल ने बताया कि समय पर स्वास्थ्य सुविधा न मिलने से पिछले एक दशक में डेढ़ दर्जन लोग जान गंवा चुके हैं। उनके भाई कमल सिंह की मौत समय से पहले सिर्फ इसलिए हो गई, क्योंकि समय पर एंबुलेंस नहीं मिली। एंबुलेंस से 40 किमी दूर कांगड़ा अस्पताल से आना था। करीब पांच किमी दूर धंगड़ गांव में पीएचसी है, लेकिन स्टाफ न होने से यह किसी काम का नहीं।