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शिमला। इंदिरा गांधी मेडिकल कालेज को खुद सर्जरी की जरूरत पड़ने लगी है। गेट से ही मरीज की परेशानी घटने के बजाय बढ़ने लगती है। पहली बार अस्पताल आने वाले मरीज और उसके तीमारदार को पता ही नहीं चलता है कि शुरूआत कहां से करें? मार्गदर्शन वाला कहीं कोई नजर नहीं आता है। किसी तरह डाक्टर तक पहुंच गए तो यह पता नहीं चलता टेस्ट कहां होंगे। वहां तक पहुंच गए तो पता चलता है कि टेस्ट की डेट पंद्रह दिन या एक महीने बाद की मिली है। अंत में मरीज खुद को ठगा-सा महसूस करता है। यहां से उपचार के लिए राज्य से बाहर किसी दूसरे अस्पताल में जाने की सोच रखें तो तो लाखों की कीमत से खरीदी गई ट्रामा वैन उसे वक्त पर नहीं मिलती। वहां संपर्क करने पर जवाब मिलता है... ड्राइवर कहीं गया है... फार्मासिस्ट को घर से बुलाना होगा...। इस प्रक्रिया में घंटों लग जाएंगे इसलिए कोई दूसरी एंबुलेंस कर लो? इस तरह की परिस्थितियों से रोजाना आईजीएमसी में सैकड़ों मरीजों को सामना करना पड़ता है। सवाल उठता है कि क्या यह बेतरतीब व्यवस्था पटरी पर आएगी या प्रदेश के सबसे बड़े अस्पताल में आकर मरीज यही कहेंगे कि क्यों आ गए हम यहां?
परेशानी : एक.....
कहां लगाएं गाड़ी
अस्पताल परिसर में वाहन पार्क करने की व्यवस्था नहीं है। मरीज को जिस गाड़ी में लाया जाता है उसे तुरंत गेट पर छोड़कर गाड़ी तीमारदार को वापस ले जानी पड़ती है। बाहर सड़क पर खड़ी करें तो पुलिस प्रतिबंधित मार्ग होने के कारण 1500 का चालान कर देती है।
परेशानी : दो
डाक्टर तक पहुंचना आसान नहीं!
आईजीएमसी की भूलभुलैया वाली गलियों के बीच मरीज फंसकर रह जाता है। पर्ची बनाने के लिए पहले घंटों लाइन में खड़ा रहना पड़ता है। पर्ची जब हाथ में आती है तो मरीज को पता नहीं रहता कि अब किस डाक्टर के पास कहां जाना है। यहां बनाई गई रिसेप्शन में कोई नहीं होता। किसी तरह डाक्टर तक पहुंच जाएं तो यहां भी लंबी कतार के बाद मुश्किल से नंबर आता है।
परेशानी : तीन
डाक्टर अगर रूटीन टेस्ट की सलाह देता है तो वह केवल 12 बजे तक होते हैं। इनकी रिपोर्ट दो बजे के बाद आती है। टेस्ट के लिए मरीज को अगले दिन फिर आना पड़ता है। अगर अल्ट्रासाउंड, सीटी स्कैन या एमआरआई करने की डाक्टर सलाह देते हैं तो मरीज को इसके लिए पंद्रह दिन से एक महीने की तारीख मिलती है। तब तक मरीज कहां भटकता रहे क्योंकि रिपोर्ट के बाद ही उसका उपचार शुरू होगा।
परेशानी : चार
24 घंटे के लिए पांच डाक्टर
आपातकालीन वार्ड में केवल पांच डाक्टरों को तैनात किया गया है। सप्ताह में डाक्टर क्रमबद्ध तरीके से ड्यूटी देते हैं। एक समय में एक ही डाक्टर तैनात रहता है। इनमें से अधिकांश डाक्टर को कोर्ट केस में जाना पड़ता है। यहां डाक्टर पर कार्य का अतिरिक्त बोझ रहता है। इसके उल्ट डिप्टी एमएस कार्यालय में कुल चार डाक्टरों की तैनाती की गई है। पहले यहां मात्र डिप्टी एमएस बैठते थे। अब तीन और डाक्टरों को अटैच किया गया है। इनका अस्पताल या मरीजों के लिए क्या योगदान है? इसका जवाब किसी के पास नहीं। यहां बैठ रहे अतिरिक्त डाक्टरों को आपातकालीन वार्ड में शिफ्ट करने में क्या दिक्कत है।
परेशानी : पांच
शाम चार बजे के बाद कहां जाए मरीज?
शाम चार बजे के बाद स्वास्थ्य बीमा योजना हेल्थ कार्ड पर हस्ताक्षर करने वाला कोई नहीं मिलता। मरीजों को निशुल्क उपचार नहीं मिल पाता। टेस्ट और दवाओं के लिए पैसे खर्च करने पड़ते हैं। गरीब तबके के मरीजों को इसका सबसे अधिक खामियाजा भुगतना पड़ रहा है।
लाखों की एक्सचेंज किस काम की
लाखों की लागत से बनी टेलीफोन एक्सचेंज में मुश्किल से ही कोई नंबर मिलता है। किसी डाक्टर और मरीज का पता करना हो तो यह भूल जाएं कि एक्सचेंज के जरिए आप उन्हें ढूंढ पाएंगे। यहां भी नंबर नहीं मिलते।
क्या कहता है कालेज प्रबंधन
इंदिरा गांधी मेडिकल कालेज के प्रिंसिपल प्रोफेसर एसएस कौशल कहते हैं कि हर मरीज को बेहतर सुविधा देने के लिए हरसंभव कोशिश की जा रही है। जहां कुछ कमियां नजर आती हैं, उन्हें शीघ्र दूर करने के प्रयास किए जाएंगे।
शिमला। इंदिरा गांधी मेडिकल कालेज को खुद सर्जरी की जरूरत पड़ने लगी है। गेट से ही मरीज की परेशानी घटने के बजाय बढ़ने लगती है। पहली बार अस्पताल आने वाले मरीज और उसके तीमारदार को पता ही नहीं चलता है कि शुरूआत कहां से करें? मार्गदर्शन वाला कहीं कोई नजर नहीं आता है। किसी तरह डाक्टर तक पहुंच गए तो यह पता नहीं चलता टेस्ट कहां होंगे। वहां तक पहुंच गए तो पता चलता है कि टेस्ट की डेट पंद्रह दिन या एक महीने बाद की मिली है। अंत में मरीज खुद को ठगा-सा महसूस करता है। यहां से उपचार के लिए राज्य से बाहर किसी दूसरे अस्पताल में जाने की सोच रखें तो तो लाखों की कीमत से खरीदी गई ट्रामा वैन उसे वक्त पर नहीं मिलती। वहां संपर्क करने पर जवाब मिलता है... ड्राइवर कहीं गया है... फार्मासिस्ट को घर से बुलाना होगा...। इस प्रक्रिया में घंटों लग जाएंगे इसलिए कोई दूसरी एंबुलेंस कर लो? इस तरह की परिस्थितियों से रोजाना आईजीएमसी में सैकड़ों मरीजों को सामना करना पड़ता है। सवाल उठता है कि क्या यह बेतरतीब व्यवस्था पटरी पर आएगी या प्रदेश के सबसे बड़े अस्पताल में आकर मरीज यही कहेंगे कि क्यों आ गए हम यहां?
परेशानी : एक.....
कहां लगाएं गाड़ी
अस्पताल परिसर में वाहन पार्क करने की व्यवस्था नहीं है। मरीज को जिस गाड़ी में लाया जाता है उसे तुरंत गेट पर छोड़कर गाड़ी तीमारदार को वापस ले जानी पड़ती है। बाहर सड़क पर खड़ी करें तो पुलिस प्रतिबंधित मार्ग होने के कारण 1500 का चालान कर देती है।
परेशानी : दो
डाक्टर तक पहुंचना आसान नहीं!
आईजीएमसी की भूलभुलैया वाली गलियों के बीच मरीज फंसकर रह जाता है। पर्ची बनाने के लिए पहले घंटों लाइन में खड़ा रहना पड़ता है। पर्ची जब हाथ में आती है तो मरीज को पता नहीं रहता कि अब किस डाक्टर के पास कहां जाना है। यहां बनाई गई रिसेप्शन में कोई नहीं होता। किसी तरह डाक्टर तक पहुंच जाएं तो यहां भी लंबी कतार के बाद मुश्किल से नंबर आता है।
परेशानी : तीन
डाक्टर अगर रूटीन टेस्ट की सलाह देता है तो वह केवल 12 बजे तक होते हैं। इनकी रिपोर्ट दो बजे के बाद आती है। टेस्ट के लिए मरीज को अगले दिन फिर आना पड़ता है। अगर अल्ट्रासाउंड, सीटी स्कैन या एमआरआई करने की डाक्टर सलाह देते हैं तो मरीज को इसके लिए पंद्रह दिन से एक महीने की तारीख मिलती है। तब तक मरीज कहां भटकता रहे क्योंकि रिपोर्ट के बाद ही उसका उपचार शुरू होगा।
परेशानी : चार
24 घंटे के लिए पांच डाक्टर
आपातकालीन वार्ड में केवल पांच डाक्टरों को तैनात किया गया है। सप्ताह में डाक्टर क्रमबद्ध तरीके से ड्यूटी देते हैं। एक समय में एक ही डाक्टर तैनात रहता है। इनमें से अधिकांश डाक्टर को कोर्ट केस में जाना पड़ता है। यहां डाक्टर पर कार्य का अतिरिक्त बोझ रहता है। इसके उल्ट डिप्टी एमएस कार्यालय में कुल चार डाक्टरों की तैनाती की गई है। पहले यहां मात्र डिप्टी एमएस बैठते थे। अब तीन और डाक्टरों को अटैच किया गया है। इनका अस्पताल या मरीजों के लिए क्या योगदान है? इसका जवाब किसी के पास नहीं। यहां बैठ रहे अतिरिक्त डाक्टरों को आपातकालीन वार्ड में शिफ्ट करने में क्या दिक्कत है।
परेशानी : पांच
शाम चार बजे के बाद कहां जाए मरीज?
शाम चार बजे के बाद स्वास्थ्य बीमा योजना हेल्थ कार्ड पर हस्ताक्षर करने वाला कोई नहीं मिलता। मरीजों को निशुल्क उपचार नहीं मिल पाता। टेस्ट और दवाओं के लिए पैसे खर्च करने पड़ते हैं। गरीब तबके के मरीजों को इसका सबसे अधिक खामियाजा भुगतना पड़ रहा है।
लाखों की एक्सचेंज किस काम की
लाखों की लागत से बनी टेलीफोन एक्सचेंज में मुश्किल से ही कोई नंबर मिलता है। किसी डाक्टर और मरीज का पता करना हो तो यह भूल जाएं कि एक्सचेंज के जरिए आप उन्हें ढूंढ पाएंगे। यहां भी नंबर नहीं मिलते।
क्या कहता है कालेज प्रबंधन
इंदिरा गांधी मेडिकल कालेज के प्रिंसिपल प्रोफेसर एसएस कौशल कहते हैं कि हर मरीज को बेहतर सुविधा देने के लिए हरसंभव कोशिश की जा रही है। जहां कुछ कमियां नजर आती हैं, उन्हें शीघ्र दूर करने के प्रयास किए जाएंगे।