कार्तिक पूर्णिमा की शाम गंगा, यमुना, विलुप्त सरस्वती केसंगम तट पर दीपोत्सव की आभा से जगमग हुई तो कुछ देर के लिए लगा जैसे नभ का तारामंडल ही धरा पर उतर आया हो। पावन त्रिवेणी के तट पर गंगा-यमुना की वेणी में यूं ही असंख्य दीपों के चंद्रहार गुंथते गए और पूनम का खिलखिलाता चांद उस जगमग ज्योति की ओट में शरमाता सा नजर आता रहा।
बच्चों, महिलाओं, युवाओं, कर्मचारियों के हाथों संगम से किला घाट के बीच इस तरह दीपों की अल्पनाएं और रंगोलियां सजाई जाती रहीं। दूसरी ओर लहरों पर इतराते दीये हर दिल में उल्लाह के अंकुर बन फूटते रहे। शंखध्वनियां भी गूंजती रहीं और घटे घड़ियाल भी। इस दीपोत्सव के यादगार मौके को गीतों, भजनों की प्रस्तुतियों से संगीतमय बनाया गया था। पौराणिक मान्यता के अनुसार कभी त्रिपुरासुर के वध के बाद देवी-देवताओं ने पुष्पवर्षा कर देव दीपावली मनाई थी।
बच्चों, महिलाओं, युवाओं, कर्मचारियों के हाथों संगम से किला घाट के बीच इस तरह दीपों की अल्पनाएं और रंगोलियां सजाई जाती रहीं। दूसरी ओर लहरों पर इतराते दीये हर दिल में उल्लाह के अंकुर बन फूटते रहे। शंखध्वनियां भी गूंजती रहीं और घटे घड़ियाल भी। इस दीपोत्सव के यादगार मौके को गीतों, भजनों की प्रस्तुतियों से संगीतमय बनाया गया था। पौराणिक मान्यता के अनुसार कभी त्रिपुरासुर के वध के बाद देवी-देवताओं ने पुष्पवर्षा कर देव दीपावली मनाई थी।