मेहनत और लगन से सफेद रेत को किसानों ने हरे सोने की खदान में बदल दिया है। कठिन परिश्रम से उनके बैंक खातों की इबारत भी बदलने लगी है। जी हां! यकीन न हो तो रुदौली क्षेत्र की सरयू नदी के कछार में फैले सैकड़ों बीघे सफेद रेत वाले खेतों को देख लीजिए।
जहां के किसान सब्जियों की आपूर्ति रुदौली, बाराबंकी, सुल्तानपुर, अमेठी, जगदीशपुर, गोंडा व बलरामपुर में करके मालामाल हो रहे हैं। थोक व्यापारी यहां से सस्ते दामों पर किसानों का उत्पाद खरीद कर मंडी तक ले जाते हैं, जहां ऊंचे भाव में बेचते हैं। नदी के कछार में बाराबंकी, गोंडा व अयोध्या की सीमा पर एक दर्जन से अधिक गांव बसे हैं। जिनकी आबादी लगभग 15 हजार है। यहां सभी किसानों के पास खेत हैं ऐसा भी नहीं है। खेतों का किराया देकर भूमिहीन किसान भी सब्जी की खेती कर रहे हैं।
सरयू नदी के सफेद रेत से भरे कछार पर अपनी मेहनत व इच्छा शक्ति के दम पर रेत में भी फसलों को लहलहाने वाले किसान कोपेपुर, बरई, सराय नासिर, चक्का, उधरौरा, अब्बुपुर, सल्लाहपुर, नूरगंज, कैथी, मंहगूपुरवा, चिर्रा, खजुरी, कोटरा, खैरी व मुजैहना के मूल निवासी हैं।
इन किसानों की मेहनत और लगन से दूर-दूर फैले रेत के कभी चांदी की तरह चमकने वाले खेत अब हरे-भरे नजर आ रहे हैं। यहां की सब्जियों की आपूर्ति रुदौली, बाराबंकी, सुल्तानपुर, अमेठी, जगदीशपुर, गोंडा व बलरामपुर में की जाती है। थोक व्यापारी गांवों में भी आकर यहां से सस्ते दामों पर किसानों का उत्पाद खरीद कर मंडी तक ले जाते हैं। जहां ऊंचे भाव में बेचते हैं।
नदी के रेत में बड़े स्तर पर तरबूज व खरबूजा की फसल लगाई जाती है फसल तैयार होने पर कई जिले के व्यापारी ट्रक द्वारा ले जाते हैं। दो जिलों की सीमा पर बसा गांव गुनौली निवासी पांचवी जमात तक पढ़े कालीप्रसाद व सीताराम कहते हैं कि खरबूजे की खेती ने उनके बैंक के खाते को भी वजनी कर दिया है, कहते हैं कि हसरत से हौसला है और हौसले से ही उड़ान होती है।
गांव के ही निवासी आठवीं जमात पास धनंजय मिश्रा बताते हैं कि उनके पास सवा सौ बीघा खेत है। जिसमें तरबूज, खरबूजा, लौकी, तोरई, कुम्हड़ा, करेला, परवल, कद्दू, खीरा सहित धान, गन्ना की यहां खेती नवंबर माह से शुरू होती है और मई माह तक समाप्त हो जाती है।
ऐसे बदल रही तकदीर
दो माह पूर्व जहां 15 से 20 फीट तक बाढ़ का पानी भरा था जिसमें किसानों की हजारों बीघा धान, गन्ना आदि फसल बर्बाद हो गई थी, आज उन्हीं सफेद रेत वाला खेतों को हरा सोने की खदान में बदलने के लिए संसाधन जुटाने और संवारने में किसान अपना पसीना बहा रहे है। यहां नवंबर माह से खेती का काम शुरु होकर मई माह में खत्म हो जाता है।
पहले उपजाऊ भूमि में रेत भर जाने से किसान खेती से मुंह मोड़ने लगे थे, लेकिन किसान अब नई तकनीक से खेती करने लगे हैं। जिससे सफेद रेत में हरी सब्जियों व रेत पर उगने वाली फसल से वे अच्छी कमाई कर रहे हैं। कछार की मिट्टी में न तो अधिक खाद की जरूरत होती है न ही सिंचाई की। बाढ़ के इस अभिशाप को कछार के किसानों ने अपने लिए वरदान बना लिया है।