शायद नौ साल की उम्र किसी फिल्म के विश्लेषण के लिए बहुत कम या कहें कि नाकाफी होती है। लेकिन, 'शोले' जब रिलीज हुई तो मैं इतना ही बड़ा था। तब किशोरवय रही पीढ़ी आज जवानी के आखिरी दौर से गुजर रही है और उस समय जवान रहे लोग अब सिर से उड़ते बालों और रोजमर्रा को जरूरतों को पूरा करने की उलझनों में गिरफ्तार होकर रह गए हैं। लेकिन, अपनी रिलीज के पच्चीस साल बाद (2001 में) भी शोले का तिलिस्म टूटा नहीं है। फिल्म की वितरक कंपनी राजश्री पिक्चर्स के दफ्तरों में आज भी इस फिल्म की बुकिंग धड़ल्ले से होती है और कई बार ऐसा भी हो चुका है कि इस फिल्म ने नई रिलीज फिल्मों से ज्यादा कारोबार अपने पुन: प्रदर्शन पर किया है। शोले का जादू ही ऐसा है। यह इसका जादू ही तो है कि इस फिल्म की रिलीज के बाद से लगातार किताबें लिखी जा रही हैं और यह सिलसिला नई सहस्राब्दी के शुरू हो जाने के बाद भी थमा नहीं है।