राम गोपाल वर्मा की फिल्म सत्या में जब भीखू म्हात्रे चिल्लाकर पूछता है, मुंबई का किंग कौन? तो समझ आता कि हिंदी सिनेमा में फिल्मों की यहां से एक अलग श्रेणी बननी शुरू हुई है। ये सिनेमा ऐसे किरदारों की कहानियां लेकर आता है, जिनमें हर एक अपनी अपनी खुशी में मस्त है। सब एक गंदे नाले के से बहाव में बहते जा रहे हैं जिसकी नियति है समंदर में जाकर गिर जाना। कोई इससे बाहर निकलने की कोशिश करता नहीं दिखता। कोई अपने किरदार पर जमी दोगलेपन की परत को भी साफ करता नहीं दिखता। लोग भले इस फिल्म परंपरा का हिंदी में चलन सत्या से मानते हों, मैं इन फिल्मों की श्रेणी की शुरूआत मानता हूं विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म परिंदा और सुधीर मिश्रा की फिल्म इस रात की सुबह नहीं से। परिंदा 1989 में रिलीज हुई और इस रात की सुबह नहीं साल 1996 में। दोनों के संवादों ने ही इन फिल्मों का असली रंग रूप बनाया और इनके किरदारों का असली तेवर दिखाया। सत्या से दो साल पहले रिलीज हुई फिल्म इस रात की सुबह नहीं हमारे आज के बाइस्कोप की फिल्म है।