सबीर हका की कविताएं तड़ित-प्रहार की तरह हैं। सबीर इमारतों में निर्माण-कार्य के दौरान मज़दूरी करते हैं। उनके दो कविता-संग्रह प्रकाशित हैं और ईरान श्रमिक कविता स्पर्धा में प्रथम पुरस्कार पा चुके हैं लेकिन कविता से पेट नहीं भरता, पैसे कमाने के लिए ईंट-रोड़ा ढोना पड़ता है। एक इंटरव्यू में सबीर ने कहा था, ''मैं थका हुआ हूं, बेहद थका हुआ, मैं पैदा होने से पहले से ही थका हुआ हूं। मेरी मां मुझे अपने गर्भ में पालते हुए मज़दूरी करती थी, मैं तब से ही एक मज़दूर हूं। मैं अपनी मां की थकान महसूस कर सकता हूं। उसकी थकान अब भी मेरे जिस्म में है।" - गीत चतुर्वेदी (अनुवादक)
शहतूत...
क्या आपने कभी शहतूत देखा है,
जहां गिरता है, उतनी ज़मीन पर
उसके लाल रस का धब्बा पड़ जाता है.
गिरने से ज़्यादा पीड़ादायी कुछ नहीं.
मैंने कितने मज़दूरों को देखा है
इमारतों से गिरते हुए,
गिरकर शहतूत बन जाते हुए
ईश्वर भी एक मज़दूर है
ज़रूर वह वेल्डरों का भी वेल्डर होगा,
शाम की रोशनी में
उसकी आंखें अंगारों जैसी लाल होती हैं,
रात उसकी क़मीज़ पर
छेद ही छेद होते हैं।
अगर उन्होंने बंदूक़ का आविष्कार न किया होता
तो कितने लोग, दूर से ही,
मारे जाने से बच जाते.
कई सारी चीज़ें आसान हो जातीं.
उन्हें मज़दूरों की ताक़त का अहसास दिलाना भी
कहीं ज़्यादा आसान होता।
ताउम्र मैंने इस बात पर भरोसा किया
कि झूठ बोलना ग़लत होता है
ग़लत होता है किसी को परेशान करना
ताउम्र मैं इस बात को स्वीकार किया
कि मौत भी जि़ंदगी का एक हिस्सा है
इसके बाद भी मुझे मृत्यु से डर लगता है
डर लगता है दूसरी दुनिया में भी मजदूर बने रहने से।
मेरे पिता मज़दूर थे
आस्था से भरे हुए इंसान
जब भी वह नमाज़ पढ़ते थे
अल्लाह उनके हाथों को देख शर्मिंदा हो जाता था।
जब मैं मरूंगा
अपने साथ अपनी सारी प्रिय किताबों को ले जाऊंगा
अपनी क़ब्र को भर दूंगा
उन लोगों की तस्वीरों से जिनसे मैंने प्यार किया,
मेरे नये घर में कोई जगह नहीं होगी
भविष्य के प्रति डर के लिए
मैं लेटा रहूंगा, मैं सिगरेट सुलगाऊंगा
और रोऊंगा उन तमाम औरतों को याद कर
जिन्हें मैं गले लगाना चाहता था
इन सारी प्रसन्नताओं के बीच भी
एक डर बचा रहता है
कि एक रोज़, भोरे-भोर,
कोई कंधा झिंझोड़कर जगाएगा मुझे और बोलेगा -
'अबे उठ जा सबीर, काम पे चलना है'
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ईश्वर...
3 years ago
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