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मज़दूर' सबीर हका की मार्मिक कविताएं

World labour day Sabir haka poetry
                
                                                                                 
                            

सबीर हका की कविताएं तड़ित-प्रहार की तरह हैं। सबीर इमारतों में निर्माण-कार्य के दौरान मज़दूरी करते हैं। उनके दो कविता-संग्रह प्रकाशित हैं और ईरान श्रमिक कविता स्पर्धा में प्रथम पुरस्कार पा चुके हैं लेकिन कविता से पेट नहीं भरता, पैसे कमाने के लिए ईंट-रोड़ा ढोना पड़ता है। एक इंटरव्यू में सबीर ने कहा था, ''मैं थका हुआ हूं, बेहद थका हुआ, मैं पैदा होने से पहले से ही थका हुआ हूं। मेरी मां मुझे अपने गर्भ में पालते हुए मज़दूरी करती थी, मैं तब से ही एक मज़दूर हूं। मैं अपनी मां की थकान महसूस कर सकता हूं। उसकी थकान अब भी मेरे जिस्म में है।" - गीत चतुर्वेदी (अनुवादक)

शहतूत...

क्या आपने कभी शहतूत देखा है, 
जहां गिरता है, उतनी ज़मीन पर 
उसके लाल रस का धब्बा पड़ जाता है. 
गिरने से ज़्यादा पीड़ादायी कुछ नहीं. 
मैंने कितने मज़दूरों को देखा है 
इमारतों से गिरते हुए, 
गिरकर शहतूत बन जाते हुए

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ईश्वर...

3 years ago

कमेंट

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😊अति सुंदर 😎बहुत खूब 👌अति उत्तम भाव 👍बहुत बढ़िया.. 🤩लाजवाब 🤩बेहतरीन 🙌क्या खूब कहा 😔बहुत मार्मिक 😀वाह! वाह! क्या बात है! 🤗शानदार 👌गजब 🙏छा गये आप 👏तालियां ✌शाबाश 😍जबरदस्त
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