नव गीत
किश्तियों का तोड़ चप्पू
रौंदते पगडंडियों को
पत्थरों की नोक से
घायल करें उगता सवेरा
आग में लिपटे हुए हैं
पाखियों के आज डैने
करगसों के हाथ में हैं
लपलपाती लालटेनें
कोठरी में बंद बैठी
ख्वाहिशों की आज मन्नत
फाड़ कर बुक्का कहीं पे
रो रही है देख जन्नत
जुगनुओं की अस्थियों को
ढो रहा काला अँधेरा
घाटियों की धमनियों से
रिस रहा है लाल पानी
जिस्म में छाले पड़े हैं
कोढ़ में लिपटी जवानी
मौत के साए उठा के
पूँछ पीछे भागते हैं
सी रहे हैं जो कफन को
सिर्फ दर्जी जागते हैं
उल्लुओं का हर शज़र की शाख़ पर बेख़ौफ़ डेरा
धँस गई धर्मान्धता में
एतिहासिक भीत निर्मित
वादियों में हो रहे हैं
खंडहरों के गीत चर्चित
दांत अपने जीभ अपनी
वर्जनाएँ हँस रही हैं
सरहदों की मुट्ठियाँ
बदनामियों को कस रही हैं
देख धूमिल रंग सारे ठोकता माथा चितेरा
नफरतों के ठीकरे अब
सरहदों पर फूटते हैं
हिन्द के सुख की तिजौरी
कुछ लुटेरे लूटते हैं
भारती का आज सच्चा
खून अगर तुझमे रवाँ है
सरफरोशों के चमन का
बीज अगर तुझमे जवां है
घाटियों में फिर अमन के गुल खिलाना काम तेरा
पत्थरों की नोक से घायल करें उगता सवेरा।
- राजेश कुमार
- हमें विश्वास है कि हमारे पाठक स्वरचित रचनाएं ही इस कॉलम के तहत प्रकाशित होने के लिए भेजते हैं। हमारे इस सम्मानित पाठक का भी दावा है कि यह रचना स्वरचित है।
आपकी रचनात्मकता को अमर उजाला काव्य देगा नया मुक़ाम, रचना भेजने के लिए यहां क्लिक करें।