जाने और ठहरने के बीच
लड़खड़ाता है दिन,
अपनी ही पारदर्शिता के प्यार में डूबा हुआ।
चक्रीय दोपहर अब एक खाड़ी है
जहां अपने सन्नाटे में डोलती है दुनिया।
सब कुछ ज़ाहिर और सब ओझल,
सब कुछ पास और पहुँंच से बाहर।
कागज़, क़िताब, पेंसिल, गिलास,
अपने नामों के साये में पनाह लिए हुए।
मेरी कनपटी पर चोट करता वक़्त दोहराता है
ख़ून के एक ही जैसे लफ़्ज़।
रोशनी के बीच बेतअल्लुक दीवार
गौरो-फ़िक्र का दहशतभरा साया।
अपने को पाता हूँ एक आँख के बीचोबीच
कोरी नज़र से ख़ुद को परखता हुआ।
बिखर जाता है लमहा । कोई हलचल नहीं,
मैं ठहरा हूँ और चल पड़ता हूँ :
मैं दरमियानी हूँ।
अंग्रेज़ी से अनुवाद : उज्ज्वल भट्टाचार्य
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