वो चलते चलते खुद 'उत्तर' हो गया,
सवाल हुए मौन, साफ़ अस्तर हो गया।
वक़्त सरका, ज़िंदगी में कब घटेगी क्रांति,
दान-पुण्य से क्या,जब सोच बदतर हो गया।
आदर्श और स्वार्थ में छिड़ा है भारी टकराव,
कैसी हवा बही, हर ख़्वाब प्रस्तर हो गया।
मेले बिखरे, भीड़ में सन्नाटा पसर गया,
पतंगें गुम, रिश्तों का क्या स्तर हो गया।
धरती का ये सूरज कितना बेबस हो गया,
मरहम करते करते क्यों नश्तर हो गया।
तालीम बढ़ी, समझ का अरज छोटा हो गया,
पूरब का ये परचम क्यों निरुत्तर हो गया।
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