Shariq Kaifi Poetry: सियाने थे मगर इतने नहीं हम, ख़मोशी की ज़बाँ समझे नहीं हम
सियाने थे मगर इतने नहीं हम
ख़मोशी की ज़बाँ समझे नहीं हम
अना की बात अब सुनना पड़ेगी
वो क्या सोचेगा जो रूठे नहीं हम
अधूरी लग रही है जीत उस को
उसे हारे हुए लगते नहीं हम
हमें तो रोक लो उठने से पहले
पलट कर देखने वाले नहीं हम
बिछड़ने का तिरे सदमा तो होगा
मगर इस ख़ौफ़ को जीते नहीं हम
तिरे रहते तो क्या होते किसी के
तुझे खो कर भी दुनिया के नहीं हम
ये मंज़िल ख़्वाब ही रहती हमेशा
अगर घर लौट कर आते नहीं हम
कभी सोचे तो इस पहलू से कोई
किसी की बात क्यूँ सुनते नहीं हम
अभी तक मश्वरों पर जी रहे हैं
किसी सूरत बड़े होते नहीं हम
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3 weeks ago
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