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मजाज़ लखनवी की नज़्म- शहर की रात और मैं, नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ

Majaz Lakhnavi
                
                                                                                 
                            शहर की रात और मैं, नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ
                                                                                                

जगमगाती जागती, सड़कों पे आवारा फिरूँ
ग़ैर की बस्ती है, कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

झिलमिलाते कुमकुमों की, राह में ज़ंजीर सी
रात के हाथों में, दिन की मोहिनी तस्वीर सी
मेरे सीने पर मगर, चलती हुई शमशीर सी
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
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1 month ago

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