आइना देख कर तसल्ली हुई
हम को इस घर में जानता है कोई
जागने पर भी नहीं आँख से गिरतीं किर्चें
इस तरह ख़्वाबों से आँखें नहीं फोड़ा करते
वक़्त रहता नहीं कहीं टिक कर
आदत इस की भी आदमी सी है
कल का हर वाक़िआ तुम्हारा था
आज की दास्ताँ हमारी है
दिल पर दस्तक देने कौन आ निकला है
किस की आहट सुनता हूँ वीराने में
रात भर बातें करते हैं तारे
रात काटे कोई किधर तन्हा
साँस मौसम की भी कुछ देर को चलने लगती
कोई झोंका तिरी पलकों की हवा का होता
हम ने अक्सर तुम्हारी राहों में
रुक कर अपना ही इंतिज़ार किया
कितनी लम्बी ख़ामोशी से गुज़रा हूँ
उन से कितना कुछ कहने की कोशिश की
आप के बा'द हर घड़ी हम ने
आप के साथ ही गुज़ारी है
दिखाई देते हैं धुँद में जैसे साए कोई
मगर बुलाने से वक़्त लौटे न आए कोई
लब पे आई मिरी ग़ज़ल शायद
वो अकेले हैं आज-कल शायद
खुली किताब के सफ़्हे उलटते रहते हैं
हवा चले न चले दिन पलटते रहते हैं
मुझ को अपना पता-ठिकाना मिले
वो भी इक बार मेरे घर आए
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4 months ago
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