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फ़िराक़ गोरखपुरी की ग़ज़ल: नर्म फ़ज़ा की करवटें दिल को दुखा के रह गईं

उर्दू अदब
                
                                                                                 
                            नर्म फ़ज़ा की करवटें दिल को दुखा के रह गईं 
                                                                                                

ठंडी हवाएँ भी तिरी याद दिला के रह गईं 

शाम भी थी धुआँ धुआँ हुस्न भी था उदास उदास 
दिल को कई कहानियाँ याद सी आ के रह गईं 

मुझ को ख़राब कर गईं नीम-निगाहियाँ तिरी 
मुझ से हयात ओ मौत भी आँखें चुरा के रह गईं 

हुस्न-ए-नज़र-फ़रेब में किस को कलाम था मगर 
तेरी अदाएँ आज तो दिल में समा के रह गईं 

तब कहीं कुछ पता चला सिद्क़-ओ-ख़ुलूस-ए-हुस्न का 
जब वो निगाहें इश्क़ से बातें बना के रह गईं 
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3 months ago

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