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Dushyant Kumar: दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल 'तुमको निहारता हूँ सुबह से ऋतम्बरा'

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तुमको निहारता हूँ सुबह से ऋतम्बरा

अब शाम हो रही है मगर मन नहीं भरा

ख़रगोश बन के दौड़ रहे हैं तमाम ख़्वाब
फिरता है चाँदनी में कोई सच डरा-डरा

पौधे झुलस गए हैं मगर एक बात है
मेरी नज़र में अब भी चमन है हरा-भरा

लम्बी सुरंग-से है तेरी ज़िन्दगी तो बोल
मैं जिस जगह खड़ा हूँ वहाँ है कोई सिरा

माथे पे हाथ रख के बहुत सोचते हो तुम
गंगा क़सम बताओ हमें क्या है माजरा 

3 महीने पहले

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