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Bashir Badra Poetry: कहीं चाँद राहों में खो गया कहीं चाँदनी भी भटक गई

bashir badra ghazal kahi chaan raahon mein kho gaya kahi chandani bhi bhatak gayi
                
                                                                                 
                            

कहीं चाँद राहों में खो गया कहीं चाँदनी भी भटक गई


मैं चराग़ वो भी बुझा हुआ मेरी रात कैसे चमक गई

मिरी दास्ताँ का उरूज था तिरी नर्म पलकों की छाँव में
मिरे साथ था तुझे जागना तिरी आँख कैसे झपक गई

भला हम मिले भी तो क्या मिले वही दूरियाँ वही फ़ासले
न कभी हमारे क़दम बढ़े न कभी तुम्हारी झिजक गई



तिरे हाथ से मेरे होंट तक वही इंतिज़ार की प्यास है
मिरे नाम की जो शराब थी कहीं रास्ते में छलक गई

तुझे भूल जाने की कोशिशें कभी कामयाब न हो सकीं
तिरी याद शाख़-ए-गुलाब है जो हवा चली तो लचक गई

3 महीने पहले

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