हिंदी के बारे में जब भी विचार करता हूँ तो सचमुच लहूलुहान हो जाता हूँ। इतने प्रकार के स्वर सुनाई पड़ने लगते हैं कि असमंजस के तमाम छत्र तन जाते हैं। फिलहाल केदारनाथ सिंह की कविता— 'मेरी भाषा के लोग' स्मरण कर रहा हूँ। यूँ तो पूरी कविता पठनीय और विचारणीय है; किंतु मैं उसके कुछ अंश रख रहा हूँ। इसमें भाषा की अवहेलना और अवमानना के तमाम दंश झेलते संदर्भ हैं; जहाँ हिंदी भाषा की वास्तविकता को न पहचाने जाने की पीड़ा भी है और उसके लिए प्रयास किए जाने के विराट रूपक भी— "मेरी भाषा के लोग/मेरी सड़क के लोग हैं/सड़क के लोग सारी दुनिया के लोग/... और मेरे पास बच गई सिर्फ़ मेरी हिंदी/जो अंतिम सिक्के की तरह/हमेशा बच जाती है मेरे पास/हर मुश्किल में/…इसमें भरा है/आस-पड़ोस और दूर-दराज की/इतनी आवाज़ों का बूँद-बूँद अर्क/कि जब भी इसे बोलता हूँ/तो कहीं गहरे/अरबी, तुर्की, बांग्ला तेलुगु/यहाँ तक कि एक पत्ती के/हिलने की आवाज़ भी/सब बोलता हूँ ज़रा-ज़रा/जब बोलता हूँ हिंदी/पर जब भी बोलता हूँ/यह लगता है/पूरे व्याकरण में/एक कारक की बेचैनी हूँ/एक तद्भव का दुःख/तत्सम के पड़ोस में।" सोचिए ये कविता कितने यथार्थ और सपने सँजोए हुए है। इसमें व्याकरण की बेचैनी तो है ही; इसमें यथार्थ को विस्तार से खोजने की तड़प, स्पृहा और बेचैनी भी महसूस की जा सकती है। इस बेचैनी को एकतरफा रूप में न लिया जाए; बल्कि इसमें छिपे संदर्भों और पहलुओं को शिद्दत के साथ समझा जाए।
हिंदी के प्रति हिंदी-भाषी क्षेत्रों में बहुत उत्साह है। उत्साह होना सहज और स्वाभाविक है।उत्साह सकर्मक भी होता है और अकर्मक भी। उत्साह कभी-कभी नासमझी का भी बायस होता है और कभी-कभार अतिरिक्त गौरव हासिल करने की इच्छा का भी हुआ करता है। यह उत्साह ऐसा है कि हिंदी के लिए कुछ करो-धरो या नहीं; बल्कि समूचे विश्व में सर्वाधिक खुशी मनाओ और तारीफ़ का बिगुल बजाते घूमो या मात्र गनगनाते फिरो। यही नहीं, फलान-ढिकान की दुनिया सजाते रहो। ऊपर से तुर्रा यह कि अपने अभिमान के झंडे भी गाड़ते रहो। दूसरों की बत्तियाँ गुल करते रहो। मात्र जलसे करो; सभाएँ आयोजित करो और डींगें हाँकते रहो। पता नहीं, हमें क्या हो गया है कि हिंदी-दिवस को हम लगभग श्राद्धकर्म की तरह या श्राद्ध-दिवस की तरह सतत रूपांतरित करने पर तुले हुए हैं। यह उसी तरह है जैसे सोशल मीडिया में मातृ-दिवस, पितृ-दिवस, शिक्षक-दिवस, मित्रता-दिवस और फलान-ढिकान दिवस की मान्यताएँ सजाते हुए हवा बाँधते फिरें। यह प्रवृत्ति बहुत तेज़ी से उभरी हैं। श्रद्धा-विश्वास और तड़प बेहद गंभीर और उम्दा चीज़ें हैं। कुछ शर्मनाक स्थितियाँ भी उपजी हैं; जैसे— जिन्होंने माता-पिता और अपने से बड़ों को ज़िंदगी भर तड़पाया; एक-एक बूँद पानी को तरसाया वे श्रवण कुमार की मुद्रा में अपने घनत्व को चौड़ा कर रहे हैं। वे इसी काम में ठेके से जुटे हैं और इस तरह उनके बारे में रो-पीट रहे हैं कि माता पिता को न जाने कितनी अहमियत देते थे। जो हमेशा धिक्कार में थे वे धन्य-धन्य की दुनिया में मशाल जुलूस निकाल रहे हैं। जैसे कि सही ढंग के कर्ता-धर्ता यही थे; बाकी तो सब छुटकैला लोग थे; खजहे कुत्ते थे। ये ही असली हीरो हैं।
स्वाधीनता-आंदोलन में अपना खून-पसीना बहाने वाले अलग-थलग हैं। अपने प्राणों की आहुतियां देने वाले पातकी थे। उनके बलिदानों का मज़ाक उड़ाया जा रहा है और अंग्रेजों का साथ देने वाले सिंहासनारूढ़ होकर तड़ीपार खेल खेल रहे हैं। उनके नाम से तरह-तरह के कर्मकांड चल रहे हैं। इसमें उन सभी को हार्दिक मज़ा आता है। पूरा परिवेश एकदम चीख-चिल्लाहट में हो तो क्या उन्हें हिंदी-हिंदी का धूम-धड़ाका चाहिए? एक मजावादी मन:संसार में ढाला जीवन चाहिए? हिंदी ही नहीं, समूची भाषाओं के विकास में ही हिंदी की संभावनाओं की दुनिया खुलती है। एक बहुत बड़ा तबका आरोपित भद्रलोक में है और उसी भद्रता के गुमान में सरपट जा रहा है। पढ़ाई-लिखाई में अपने बच्चों को अंग्रेजी तालीम दिलवा रहा है; लेकिन दिखावा हिंदी का कर रहा है। डॉक्टरों को हिंदी नहीं आती। इसलिए उनकी औषधियों की चिकित्सा संबंधी पर्ची हमेशा अंग्रेजी में ही लिखी जाती है।
उनकी चिकित्सा के तमाम रूप बिखरे हुए हैं; जिससे उनकी विद्वता निरंतर झरती रहती है। न्यायालय तो हिंदी से एकदम अछूते हैं। माननीयों पर टिप्पणी करना न्याय-व्यवस्था की तौहीन और अवहेलना मान लिया जाएगा। इसलिए न्याय के मंदिरों में हिंदी सज़ा भुगत रही है। नकलीपन में समूची सुविधाओं को जुटाया जा रहा है। हमारे पोस्टर अंग्रेज़ी में बनाए जाते हैं। उच्चता की भरपाई और तमाम ज़िंदगी के कार्यों में अंग्रेज़ी छाप का शिगूफा छोड़ा जा रहा है। यह अंग्रेज़ी-विरोधी मनोविज्ञान के तथाकथित इलाके से नहीं कह रहा हूँ। यह तथाकथित उच्चताबोध के इलाके में सबकी धुरचट करने वाले महापुरुषों के स्वर्ग से कह रहा हूँ। यह मानता हूँ कि कोई भाषा कमतर न मानी जाए। सबके विकास में ही हिंदी का विकास है। भाषाओं के स्वरूपों में ही हिंदी की संभावनाओं की दुनिया है।
हमें हिंदी ही नहीं, बल्कि समूची भारतीय भाषाओं के विकास और प्रवाह को गंभीरता से देखना होगा। हिंदी भाषा के प्रति देश के लोगों की जो आकांक्षाएँ जाग्रत हुई हैं। उन्हें समझना है। उन रास्तों को उजागर करना होगा; जिनकी हमें बहुत ज़रूरत है। मीडिया और इंटरनेट की दुनिया के जो पंख खुले हैं उनके विकास के सामने जो व्यवधान आ रहे हैं उन्हें भी दूर करना होगा। दुर्भाग्य से एक ऐसा सभ्य, संभ्रांत और परजीवी वर्ग पैदा हुआ है; जिसे हिंदी बोलने में लज्जा आती है। हाँ, हिंदी-प्रेम करने के नक़ली दावे वह ज़रूर करता है। झूठी शपथ लेने में उसे मज़ा आता है और तमाम तरह की प्रतिज्ञा करता है लेकिन हिंदी से दूर रहना चाहता है। यह दोगलापन बहुत तेजी से विकसित हो रहा है इससे नकलीपन का दायरा पढ़ रहा है।
हिंदी में हम लगातार हीनता का अनुभव करते हैं। इस तरह का आचरण करते हैं कि अपने अंदर ही बार-बार लुट-पिट जाते हैं और परम प्रतापी परम घटिया रूप में प्रकट हो रहे हैं। हम शर्म और लज्जा के दायरे से लगभग अलग हो चुके हैं। यह सब कुछ हमारी राष्ट्रीय जड़ता का ही द्योतक है। न हमारे पास कथनी है और न करनी। एकदम श्रेष्ठता सिद्ध करने की धौंकनी चल रही है। है तो मात्र एक विशेष किस्म का दिखावा। मैं बी.ए. द्वितीय वर्ष का छात्र था 1967-68 में। अंग्रेज़ी-विरोधी आंदोलन भी देख चुका हूँ और उसका हश्र भी। उस समय किसी को अंग्रेज़ी पढ़ते देखा तो समझिए उसकी पिटाई हो गई। बोलने वालों का घोंघा यानी गर्दन तक पकड़ ली जाती थी। बोलने-लिखने वाले लोगों के मुँह में कोलतार पुतते मैनें देखा है। कुछ समय के लिए प्रजेंट सर की जगह उपस्थित महोदय का नशा चढ़ गया। अंग्रेज़ी के व्याख्याताओं को भी इसका निशाना बनाया गया। कुछ ने तो माफ़ी माँग ली कि क्या करें नौकरी कर रहे हैं तो अंग्रेज़ी भाषा पढ़ाना हमारी अनिवार्यता है। हर नगर के अंग्रेज़ी-विज्ञापन और दुकानों में अच्छे-खासे हुड़दंग हुए। उस मनोविज्ञान से कुछ ही लोग बच पाए थे। रह-रहकर उस मंज़र को याद करता हूँ तो काँप-काँप जाता हूँ। अंततोगत्वा हुआ क्या? न नौ मन तेल हुआ और न राधा नाची। कुछ दिनों के बाद यह नशा हिरन हो गया। बाकी बचा अंडा।
हम हिंदी की बातें बहुत ठाठ से करते हैं और करनी भी चाहिए। अभी भी कर रहे हैं और आगे भी करेंगे। वो हिंदी जो भारत में सबसे ज्यादा लोग बोलते हैं; लेकिन उसे मानते नहीं हैं। एक पक्ष यह भी है कि दूसरी भाषाओं से जबर्दस्ती से अपाहिज बनाने की मुहिम चलाई जा रही है। हिंदी को सब मानने को कह रहे हैं और मनमानीपन का नक्शा तैयार कर रहे हैं। वे अंग्रेज़ी की लंबी चादर में घुसकर ही निस्तार और विस्तार पाते हैं या तलाश रहे हैं। संदर्भ भले दूसरा है; लेकिन यथार्थ लगभग यही है। पाकिस्तान की शायरा परवीन शाकिर के दो शेर सुनें— "गए मौसम में जो खिलते थे गुलाबों की तरह/दिल पे उतरेंगे वही ख़्वाब अजाबों की तरह/रात के ढेर पे अब रात बसर करनी है/जल चुके हैं मेरे खेमें मरे ख़्वाबों की तरह।" हमारे ख़्वाबों का सील हो जाना ख़तरनाक स्थितियों की सूचना है।
प्रश्न है कि इस दौर में हिंदी में क्या हो रहा है? ऊपर-ऊपर से तमाम तरह-तरह के तामझाम हैं। हिंदी वाले खूब गा-बजा रहे हैं। विश्वविद्यालयों में ठेके से हिंदी-हिंदी हो रही है। और कुछ अधकचरे अनेक प्रकार से विद्वता की खाल ओढ़े अल्पज्ञानी होकर भी हिंदीबाज ज्ञान के उजाले की ताल पर अंधकार की राशियाँ नाप रहे हैं। तमाम कार्यालयों में भी हिंदी-हिंदी हो रही है और सरकारें उत्सव और तामझाम के ठेके लिए बैठी हैं। सच तो यह है कि हमें अपनी चाल-चलन भी बदलनी होगी; कथनी-करनी के भेद को मिटाना भी होगा। हिंदी भाषा की सहजता, स्वाभाविकता और रवानगी को हमने खूँटे से बाँध दिया है और मंचों पर मनमानी व्याख्याएँ और मन की बातों के सन्ने-भन्ने ठोंक रहे हैं। लगे रहिए हिंदी के उत्थान में इसी तरह। तभी तो कहना पड़ता है— "बहुत काल बीते जजमान/अब तो ठीक करो हिंदी का तापमान।" दूसरी भाषाओं की हवा भी आने दो।जाहिर है कि जिस भाषा में मतभेदों की टंकार सुनने का शऊर न हो तो वह ठीक से न खड़ी हो सकेगी और न ठीक से बैठ पाएगी। वह मात्र भ्रम के उल्लू उड़ाती रहेगी। एक बहुत बड़ा भरम यह है कि हिंदी हिंदुओं की भाषा है और उर्दू मुसलमानों की। जो जहाँ रहता है, उसका साबका उसी क्षेत्र की भाषा से होता है। वह ज़िंदगी की धड़कनें वहीं से संभव कर सकता है। हमारे जीवन में हमारे रहवासी क्षेत्रों की यही वास्तविकता है; जिसे किसी भी सूरत में अनदेखा नहीं किया जा सकता।
कोई भाषा, कोई समाज और कोई राष्ट्र यूँ ही बड़ा नहीं होता; बल्कि उसका दिल भी बड़ा होना चाहिए। उसकी खिड़कियाँ खुली होनी चाहिए ताकि विभिन्न स्थानों की भाषा बोली हवा की तरह बहती रह सके। हिंदी का मेल मिलाप अन्य भाषाओं से सुविधानुसार हो सके। कुछ छुटभइए और तिकड़मखोर मात्र हिंदी की शुद्धता का राग अलाप रहे हैं और इसी में अपनी छवियाँ तलाश रहे हैं। हिंदी को हम वैज्ञानिकता से खारिज़ करते जा रहे हैं। यह हमारा और हिंदी भर का नहीं; बल्कि देश का दुर्भाग्य है। वहाँ बाज़ार तो आवाजाही कर रहा है; लेकिन हिंदी की अस्मिता और उसका सहज स्वाभिमान निरस्त किया जा रहा है। क्या हिंदी को हम एक रूढ़िवादी, कंजरवेटिव और अतीतजीवी मनोविज्ञान में नहीं फिट कर रहे हैं? यह प्रश्न राष्ट्रीय स्तर पर करना होगा। हिंदी का गाना-बजाना करते रहो, उससे हिंदी का न उद्धार हो सकता; न उसको विकास के पंख मिल सकते। ज़ोर देकर कहना चाहता हूँ कि हिंदी-भाषी समाज में यूँ तो दोनों दृष्टियाँ सक्रिय रही हैं। वह एक जटिल समाज है और उसमें हमारी आदिमताएँ भी सुरक्षित हैं, मध्यकालीनताएँ और उसकी सरणियाँ भी एवं परम आधुनिक मनोभूमियाँ भी यानी आधुनिकता के तमाम तरह के हिमालय टापू, ढलानें, दलदली इलाके समतल मैदान और शिखर भी हैं।
हिंदी का रिश्ता किसी स्तूप से या साँचे से किसी भी तरह संभव नहीं है। उसका विस्तार और काम राष्ट्रीय अस्मिता और संवाद से ही संभव है। यही नहीं, वह जनजीवन के जुड़ाव से भी है। यूँ तो भारत में अनेक भाषाएँ और बोलियाँ बोली जाती हैं और उनकी प्रचुरता है और साहित्य भी है; लेकिन हिंदी सर्वाधिक बोली और समझी जाती है। उसमें प्रसार की अनंत संभावनाएँ हैं। यह पहचान, अस्मिता और पहुँच का माद्दा उसे किसी संविधान ने या व्यवस्था ने नहीं दिया; बल्कि इस महादेश की जनता के प्यार ने दिया है और इसीलिए वह इस देश की प्रतिनिधि भाषा के रूप में विकसित हुई है और अस्तित्व में आई है; जिसका विस्तार विश्व के अनेक देशों में सक्षमता के साथ है। हिंदी में सामंजस्य स्थापित करने की, उसे फैलाने की अकूत क्षमता है। माना जाता है कि किसी भी राष्ट्र में समरसता और समानता, एकसूत्रता और अभिन्न जुड़ाव भाषा की स्वीकार्यता में ही संभव होते हैं या साँस लेते हैं। हिंदी में यह अपार संभावना और क्षमता है। जाहिर है कि उसके विकास को कोई रोक नहीं सकता। गलत मनोविज्ञान भी और उसके घुन लगे इरादे भी ऐसा नहीं कर पाएँगे। उनकी दृष्टि का एकाकीपन उन्हें अपने तक ही सीमित कर देगा।
हिंदी हाज़िर हो— यह कोई मुहावरा नहीं है। हिंदी-दिवस साल भर में एक बार ही आता है। वह हम सभी के लिए उत्साह-उमंग और उम्मीद की तरह भी आता है; कई तरह के सपनों के साथ भी। इसलिए इसे किसी तरह की खानापूर्ति के रूप में नहीं लेना चाहिए। अच्छा हो कि हम आत्मगौरव भर में नहीं जिएँ। ज़िंदगी की और हिंदी की वास्तविकता को समझें भी। हमारे ध्यान में तमाम भारतीय भाषाएँ और बोलियाँ भी होनी चाहिए; अकेले हिंदी नहीं। हमारी समझ में हिंदी के सामने सबसे बड़ा संकट यह है कि उसे स्तूप बनाया जा रहा है; लेकिन दिक्कत यह है कि उसे ज्ञान की अजस्र परंपरा से भरपूर काटा-छाँटा भी जा रहा है। सच तो यह है कि हिंदी के निर्माण के पीछे संस्कृत से लेकर भारतीय भाषाओं की एक लंबी परंपरा रही है— प्राकृत, अपभ्रंश और अन्य भी और इस लंबी परंपरा में संतों, भक्तों, दबे-कुचले लोगों से लेकर स्त्रियों के संघर्षों का विस्तार और लोकजीवन की बहुत बड़ी दुनिया है; जिसे हम संक्षेप में हिंदी की समूची विरासत कह सकते हैं। हिंदी भाषा के व्यवहार-शास्त्र को ढंग से समझा जाना चाहिए। भाषा की अपार क्षमता और ताक़त होती है। हिंदी की ताक़त राजनीति में भी है और सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों में भी है। हमारे पास दोनों रूप हैं। तय करना है कि सत्ता की भाषा महत्त्वपूर्ण है या आमजन की भाषा। मुझे लगता है समन्वय स्थापित करना ज़रूरी है। सत्ता और आम जनता का संवाद ईमानदारी के बिना स्थापित नहीं हो सकता। साहित्य की भाषा और आम जनता के प्रयोग की भाषा पर भी ध्यान देना ज़रूरी है। यदि हिंदी राजनीतिक सत्ता के मोह में या दबाव में विकसित हुई तो बहुसंख्यक समाज का क्या होगा? हिंदी में जो ऊर्जा है उसे सत्ता-व्यवस्था की भूल-भुलैया में निस्तेज न होने पाए। मैं तथाकथित शास्त्रीय किस्म की हिंदी यानी शुद्धता की लपेट वाली हिंदी के स्थान पर तद्भव और देशज नजरिया वाली संतुलित हिंदी के इस्तेमाल का कायल हूँ। देश के जनतंत्र की तरह भाषाओं का भी जनतंत्र होता है। स्वाभाविक है कि ऐसा ही जनतंत्र हिंदी का भी हो। वह किसी भी कीमत में गुमान की भाषा के रूप में विकसित न हो।
हिंदी दिवसPC: For Reference Only
देश की लगभग आधी से थोड़ा ज्यादा आबादी इसे बोलती है। इसके विस्तार में मीडिया, फिल्मों और इंटरनेट में लगातार कार्रवाई हुई है। हिंदी को बहुत विनम्रता के साथ राष्ट्रीय पटल पर अपनी कार्रवाई करनी है। कोई गुमान न पाला जाए। हिंदी भारत में है; हिंदी हमारी ज़िंदगी की विविधता और मुठभेड़ में है; लेकिन उसकी पहुँच, प्रभाव और विस्तार दुनिया के अन्य देशों में भी है— श्रीलंका, मारिशस, चिली, गुयाना, फिजी, नेपाल, पाकिस्तान, त्रिनिदाद एवं टोबेगो, थाईलैंड, मलेशिया, इंडोनेशिया इत्यादि में और यह किसी की कृपा से संभव नहीं हुआ। इसे हमारे कामकाजी पूर्वज विदेशों में रोज़ी रोटी की तलाश में जहाँ गए, लेते हुए गए और अब वे गिरमिटिया कहे जाने वाले अपने जीवन में बसाए हुए हैं। इसे देश के लोगों ने नए-नए रूपों में निरंतर ढाला है। इस विस्तार के लिए हमारा दिल भी बड़ा होना चाहिए। हमारे पास दूसरी भाषाओं, लोकबोलियों के साथ क़दम-से-क़दम मिलाना चाहिए। यही नहीं, देश के तमाम लोगों और अन्य भाषाओं को साथ में लेकर चलना भी है। भाषा के विकास के लिए उसके चाहने वालों में बेचैनी महसूस होनी चाहिए। हिंदी-विकास के आँकड़े उपलब्ध करने मात्र से कोई आकाश नहीं खुल पाएगा।
हिंदी के सामने अब बाज़ार -ही-बाज़ार है। वह जनता से बाज़ार की ओर जा रही है और उसी के समानांतर बाज़ार जनता के पास आ रहा है या लौट रहा है। इस द्वंद्व को समझने की ज़रूरत है। बाज़ार का कोई एक रूप नहीं होता। बाज़ार चीज़ों भर का नहीं होता— रिश्तों का बाज़ार और उसमें छिपे कारकों के विस्तार का बाज़ार। उसे सत्ता और संस्कृति के बाज़ार रूप में भी देखें। सच है कि हिंदी की संभावनाओं की धमक देश से लेकर संसार तक पहुँच रही है। हिंदी समन्वय स्थापित करने की मुद्रा में है। इसका कारण है— बाज़ार को पूरी तरह से साधना। हिंदी सभी को अपने कब्जे में ले रही है। सोचिए, हिंदी टाइपिंग की हालत बेहद खराब है; फिर भी अधकचरी हिंदी का जलवा है। हिंदी की प्रतिष्ठा कमज़ोरियों के बाद भी बढ़ रही है। मीडिया और इंटरनेट में टाइपिंग के लिए नए-नए रूप भी तलाशने की ज़रूरत है। चिंता है कि तथाकथित बड़े-बड़े लोग अंग्रेज़ी का प्रयोग कर रहे हैं। उनके बच्चे अंग्रेज़ी माध्यम में पल-बढ़ रहे है। प्रयोग संतुलित हों।
हमारी हिंदी में स्वाभाविकता से तपकर जो शब्द आ जाएँ, उन्हें अपना लेने में ही हिंदी का विस्तार संभव है। उसकी पहचान और लोकप्रियता के साथ भलाई भी है। भाषा मात्र भाषा के लिए नहीं होती। वह हमारी ज़िंदगी की अनमोल गंध है। उसमें ही हमारा समग्र जीवन है। फिल्मों और सीरियलों में भी हिंदी का प्रयोग होता रहा है। मुझे पटकथा लेखिका अचला नागर का कहा याद आया— "फिल्में मनोरंजन का सशक्त माध्यम हैं और बहुत लोकप्रिय हैं। हिंदी भाषा को लोकप्रिय बनाने में फ़िल्मों का बहुत बड़ा योगदान रहा है।" हिंदी का विकास जनता के रहमों करम पर ही अवलंबित है। हिंदी का कोई एक रूप नहीं है। उसकी अनंत धाराएं हैं। बार बार इसका व्याकरण बनता है और सामान्य जन उसे तोड़ता है। बनने बिगड़ने की इसी प्रक्रिया में हिंदी का बनना और समग्र विकास भरपूर देखा जा सकता है। अंत में मंगलेश डबराल की कविता वर्णमाला की कुछ पंक्तियाँ पढ़ें— "एक भाषा में अ लिखना चाहता हूँ/अ से अनार अ से अमरूद/लेकिन लिखने लगता हूँ अ से अनर्थ अ से अत्याचार/कोशिश करता हूँ कि क से क़लम या/करुणा लिखूँ/लेकिन मैं लिखने लगता हूँ क से क्रूरता क से कुटिलता/...आततायी छीन लेते हैं हमारी पूरी वर्णमाला/वे भाषा की हिंसा को बना देते हैं/समाज की हिंसा/ह को हत्या के लिए कर दिया गया है/हम कितना ही हल और हिरण लिखते रहे/वे ह से हत्या लिखते रहते हैं हर समय।"
—सेवाराम त्रिपाठी
रजनीगंधा-06, शिल्पी उपवन,
अनंतपुर, रीवा (म.प्र.)-486002
आगे पढ़ें
1 month ago
कमेंट
कमेंट X