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हिंदी दिवस के नाम एक पाती : 'वाचालता का कोरस'

हिंदी दिवस
                
                                                                                 
                            हिंदी के बारे में जब भी विचार करता हूँ तो सचमुच लहूलुहान हो जाता हूँ। इतने प्रकार के स्वर सुनाई पड़ने लगते हैं कि असमंजस के तमाम छत्र तन जाते हैं। फिलहाल केदारनाथ सिंह की कविता— 'मेरी भाषा के लोग' स्मरण कर रहा  हूँ। यूँ तो पूरी कविता पठनीय और विचारणीय है; किंतु मैं उसके कुछ अंश रख रहा हूँ। इसमें भाषा की अवहेलना और अवमानना के तमाम दंश झेलते संदर्भ हैं; जहाँ हिंदी भाषा की वास्तविकता को न पहचाने जाने की पीड़ा भी है और उसके लिए प्रयास किए जाने के विराट रूपक भी— "मेरी भाषा के लोग/मेरी सड़क के लोग हैं/सड़क के लोग सारी दुनिया के लोग/... और मेरे पास बच गई सिर्फ़ मेरी हिंदी/जो अंतिम सिक्के की तरह/हमेशा बच जाती है मेरे पास/हर मुश्किल में/…इसमें भरा है/आस-पड़ोस और दूर-दराज की/इतनी आवाज़ों का बूँद-बूँद अर्क/कि जब भी इसे बोलता हूँ/तो कहीं गहरे/अरबी, तुर्की, बांग्ला तेलुगु/यहाँ तक कि एक पत्ती के/हिलने की आवाज़ भी/सब बोलता हूँ ज़रा-ज़रा/जब बोलता हूँ हिंदी/पर जब भी बोलता हूँ/यह लगता है/पूरे व्याकरण में/एक कारक की बेचैनी हूँ/एक तद्भव का दुःख/तत्सम के पड़ोस में।" सोचिए ये कविता कितने यथार्थ और सपने सँजोए हुए है। इसमें व्याकरण की बेचैनी तो है ही; इसमें यथार्थ को विस्तार से खोजने की तड़प, स्पृहा और बेचैनी भी महसूस की जा सकती है। इस बेचैनी को एकतरफा रूप में न लिया जाए; बल्कि इसमें छिपे संदर्भों और पहलुओं को शिद्दत के साथ समझा जाए।     
                                                                                                


        हिंदी के प्रति हिंदी-भाषी क्षेत्रों में बहुत उत्साह है। उत्साह होना सहज और स्वाभाविक है।उत्साह सकर्मक भी होता है और अकर्मक भी। उत्साह कभी-कभी नासमझी का भी  बायस होता है और कभी-कभार अतिरिक्त गौरव हासिल करने की इच्छा का भी हुआ करता है। यह उत्साह ऐसा है कि हिंदी के लिए कुछ करो-धरो या नहीं; बल्कि समूचे विश्व में सर्वाधिक खुशी मनाओ और तारीफ़ का बिगुल बजाते घूमो या मात्र गनगनाते फिरो। यही नहीं, फलान-ढिकान की दुनिया सजाते रहो। ऊपर से तुर्रा यह कि अपने अभिमान के झंडे भी गाड़ते रहो। दूसरों की बत्तियाँ गुल करते रहो। मात्र जलसे करो; सभाएँ आयोजित करो और डींगें हाँकते रहो। पता नहीं, हमें क्या हो गया है कि हिंदी-दिवस को हम लगभग श्राद्धकर्म की तरह या श्राद्ध-दिवस की तरह सतत रूपांतरित करने पर तुले हुए हैं। यह उसी तरह है जैसे सोशल मीडिया में मातृ-दिवस, पितृ-दिवस, शिक्षक-दिवस, मित्रता-दिवस और फलान-ढिकान दिवस की मान्यताएँ सजाते हुए हवा बाँधते फिरें। यह प्रवृत्ति बहुत तेज़ी से उभरी हैं। श्रद्धा-विश्वास और तड़प बेहद गंभीर और उम्दा चीज़ें हैं। कुछ शर्मनाक स्थितियाँ भी उपजी हैं; जैसे— जिन्होंने माता-पिता और अपने से बड़ों को ज़िंदगी भर तड़पाया; एक-एक बूँद पानी को तरसाया वे  श्रवण कुमार की मुद्रा में अपने घनत्व को चौड़ा कर रहे हैं। वे इसी काम में ठेके से जुटे हैं और इस तरह उनके बारे में रो-पीट रहे हैं कि माता पिता को न जाने कितनी अहमियत देते थे। जो हमेशा धिक्कार में थे वे धन्य-धन्य की दुनिया में मशाल जुलूस निकाल रहे हैं। जैसे कि सही ढंग के कर्ता-धर्ता यही थे; बाकी तो सब छुटकैला लोग थे; खजहे कुत्ते थे। ये ही असली हीरो हैं।  आगे पढ़ें

1 month ago

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