कहते हैं कि कोई अपने हुनर से इश्क करने लगे और उसको अपना पेशा बना ले तो वह दुनिया की ऊंचाईयों को छू लेता है। ऐसा ही इश्क शायर जिगर मुरादाबादी अपनी ग़ज़लों से करते थे। वो 3 नवंबर, 1959 का दिन था। जब लखनऊ के रेडियो स्टेशन में एक रेडियो कवि सम्मेलन का आयोजन होने वाला था। इस जमाने में जिगर सख़्त बीमार थे और कवि सम्मेलन में भाग लेने के योग्य नहीं थे। किंतु रेडियोवालों का आग्रह था कि कैसे भी हो, उन्हें शामिल किया जाए। किंतु कमजोरी इतनी थी कि वह रेडियो स्टेशन नहीं जा सकते थे। अंत में एक मध्य मार्ग अपनाया गया कि कवि सम्मेलन से पूर्व उनकी एक ग़ज़ल रिकार्ड कर ली जाए। अत: रेडियो की ओर से शफ़ाअत अली सिद्दीकी ग़ज़ल रिकार्ड करने के लिए जिगर के निवास स्थान पर पहुंचे।
उन्होंने घर में घुसने के बाद बताया कि बीमारी ने जिगर साहब को निढाल कर दिया था। रोग भले ही कुछ कम हो, किंतु कमज़ोरी इतनी अधिक थी कि बिना किसी सहारे के बैठ भी नहीं सकते थे। उन्होंने बड़े प्रसन्न-चित्त मुद्रा में मुस्कराकर हम लोगों का स्वागत किया।
कुशलता पूछी, अपनी कुशलता सुनायी। फिर बहुत थके और निढाल स्वर में डॉ. अब्दुल हमीद साहब से अपने रोग के बारे में दो-चार बातें की। उन्होंने बातों-बातों में उनको ऐसा बहलाया और ऐसी फुलझड़ियां छोड़ी कि कमरे का वातावरण ही बदल गया। होते-होते बात शेरो-शायरी तक आ गई। मानो जिगर साहब को कोई भूली बात याद आ गई हो। कहने लगे, आप लोगों को काफ़ी विलम्ब हो गया।
बड़ा समय नष्ट हुआ। लीजिए, मैं तैयार हूं। आप रिकार्डिंग आरंभ कीजिए। अब उनसे कौन कहता है कि जिगर के सामीप्य से बढ़कर इस समय कोई अन्य वस्तु मूल्यवान नहीं है। हमने आज्ञा का पालन किया। जिगर साहब तकियों के सहारे संभलकर बैठ गए। बड़े निर्बल स्वर में उन्होंने ग़ज़ल आरंभ की- जान कर मिन-जुमला-ए-ख़सान-ए-मय-ख़ाना मुझे/ मुद्दतों रोया करेंगे जाम ओ पैमाना मुझे
साभार- भारतीय साहित्य के निर्माता जिगर मुरादाबादी
प्रकाशन- साहित्य अकादमी
1 year ago
कमेंट
कमेंट X