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नूर साहब मुशायरे के स्टेज पर बैठे हों तो महसूस होता कि लखनऊ बैठा हुआ है....

नूर साहब मुशायरे के स्टेज पर बैठे हों तो महसूस होता है कि लखनऊ बैठा हुआ है....
                
                                                         
                            'लफ़्ज़ों के ये नगीने तो निकले कमाल के 
                                                                 
                            
ग़ज़लों ने ख़ुद पहन लिए ज़ेवर ख़याल के 

ऐसा न हो गुनाह की दलदल में जा फंसू 
ऐ मेरी आरज़ू मुझे ले चल संभाल के' 


इन अश्आर को क़लमबंद करने वाले शायर कृष्ण बिहारी ‘नूर’ ने तमाम उम्र लफ़्जों को संजीदगी से तराश कर शायरी की। मुशायरों में कलाम पढ़ने का उनका अंदाज़ भी अन्य शायरों से जुदा था। हालांकि, शुरुआत में वो अपना कलाम तरन्नुम में यानी गाकर पेश करते थे। लेकिन बाद में वह तहत में पढ़ने लगे। 8 नवंबर, 1925 को लखनऊ के ग़ौसनगर मुहल्ले में पैदा हुए नूर का शुमार लखनऊ की तहज़ीब का मेयार बुलंद करने वाली शख़्सितों में किया जाता है। कृष्ण बिहारी ‘नूर’ के साथ अनेक मुशायरे पढ़ने वाले मुनव्वर राना का उनसे ख़ास राब्ता रहा। 

वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित शायर मुनव्वर राना की आत्मकथा 'मीर आ के लौट गया' में मुनव्वर शायर नूर के बारे में लिखते हैं, "उन्हीं दिनों की बात है कि जनाब कृष्ण बिहारी नूर जो फ़ज़ल लखनवी के शागिर्द हैं, मुशायरों में बेहद मक़बूल हो रहे थे। इसी मुशायरे में फ़िराक़ साहब भी मौजूद थे और सदारत कर रहे थे। नूर साहब ग़ज़ल पढ़ने के लिए माइक पर आए और सद्रे मुशायरा से कलाम पढ़ने की इजाज़त तलब की। फ़िराक़ साहब ने हस्बे आदत फब्ती कसते हुए कहा कि 'गाओ, गाओ'। नूर साहब ने निहायत अदब के साथ फ़िराक़ साहब से अर्ज़ किया कि आइन्दा आप मुझे कभी गाते हुए नहीं सुनेंगे। वह दिन है और आज का दिन, नूर साहब तहत में अपना कलाम सुनाते हैं और उनके कलाम सुना चुकने के बाद अच्छे से अच्छा तरन्नुम का शायर कामयाब होने के लिए ख़ून थूक देता है।  आगे पढ़ें

2 वर्ष पहले

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