“लाखों क्रौंच कराह रहे हैं,
जाग, आदि कवि की कल्याणी?
फूट-फूट तू कवि-कंठों से,
बन व्यापक निज युग की वाणी।“
कविता वह है जो अपने युग की वाणी बने। अपने दौर के हर वर्ग और शोषितों की हक़ में उठे। समाज में व्याप्त पाखंड और आडंबर को खत्म कर एक स्वस्थ और जागृत समाज के निर्माण में अपना योगदान दे। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जीवन भर अपनी कविता के जरिए यही करते रहें और अपने युग के कवियों से इसका आह्वान भी करते रहे। उनकी ये पंक्तियां उनके विचारों और सोच को ही दर्शाती हैं। दरअसल, आधुनिक युग में हिन्दी काव्य में पौरुष का प्रतीक और राष्ट्र की आत्मा का गौरव गायक जिस कवि को माना जाता है, उसी का नाम रामधारी सिंह ‘दिनकर’ है।
दिनकर यशस्वी भारतीय परम्परा के अनमोल धरोहर हैं, जिन्होंने अपनी कालजयी रचनाओं के जरिए देश निर्माण और स्वतंत्रता संघर्ष में स्वयं को पूरी तरह समर्पित कर दिया था। ‘कलम आज उनकी जय बोल’ जैसी प्रेरणादायक कविता और उर्वशी जैसे काव्य के प्रणेता रामधारी सिंह दिनकर ने साहित्य की विभिन्न विधाओं में अनवरत लेखन किया, लेकिन उनकी विशिष्ट पहचान कविता के क्षेत्र में ही बनी। उन्होंने कविता में पदार्पण भले ही छायावाद और श्रृंगार रस से प्रभावित होकर किया हो, लेकिन समय के साथ-साथ उनकी कविता निरंतर राष्ट्रीयता और स्वातंत्र्य प्रेम का पर्याय बनती चली गई।
दिनकर ने अपनी इस राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय प्रेम को स्वीकार्य करते हुए भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार समारोह के अवसर पर कहा था कि “जिस तरह जवानी भर मैं रवीन्द्र और इक़बाल के बीच झटके खाते रहा, उसी तरह जीवन भर मैं गांधी और मार्क्स बीच भी झटके खाता रहा हूँ। इसीलिए उजले को लाल से गुणा करने पर जो रंग बनता है वही रंग मेरी कविता का है और मेरा विश्वास है कि भारतवर्ष के भी भावी व्यक्तित्व का रंग यही होगा।“
23 सितंबर 1908 को बिहार के मुंगेर जिला के सिमरिया गांव में जन्में रामधारी सिंह दिनकर की शुरुआती शिक्षा गांव में ही हुई। पिता रवि सिंह किसान थे। दिनकर ने स्नातक की पढ़ाई पटना विश्वविद्यालय से की। छात्र जीवन से ही संघर्षों और चुनौतियों से जूझते हुए दिनकर ने बचपन से जवानी तक के सफ़र में अनेक उतार-चढ़ाव देखे। इस संघर्षों ने दिनकर के विचारों और सोच को एक व्यापक दृष्टिकोण प्रदान किया। इस परिवेश का परिणाम ही था कि जुझारूपन उनके व्यक्तित्व की एक प्रमुख प्रवृत्ति बन गया। हालांकि, तमाम उतार-चढ़ाव के बावजूद दिनकर की पैनी नजर अपने युग की हर छोटी-बड़ी घटनाओं पर केंद्रित रही। अपने युग की हर सांस को वे पहचानते थे और इसका विस्फोट उनकी कविताओं और रचनाओं में खूब देखने को मिलता है। तभी तो दिनकर यह ललकारते हुए दिखते हैं कि
“सुनुँ क्या सिंधु मैं गर्जन तुम्हारा, स्वयं युग-धर्म का हुंकार हूँ मैं
कठिन निर्घोष हूँ भीषण अशनि का, प्रलय गांडीव का टंकार हूँ मैं।“
जीवन भर दिनकर ने अपनी लेखनी में जन-जागरण के लिए हुंकार की इस गर्जना को बरकरार रखा। अपनी रचनाओं के माध्यम से वे लगातार न केवल हिन्दी साहित्य के भंडार को अपनी विविध विधाओं से भरने का प्रयत्न करते रहें, बल्कि क्रांति-चेतना के अग्रदूत बनकर अपनी कविताओं के जरिए राष्ट्र प्रेम का अलख भी जगाते रहे। दरअसल राष्ट्रीय कविता की जो परंपरा भारतेन्दु से शुरू हुई थी उसकी परिणति हुई दिनकर की कविताओं में। उनकी रचनाओं में अगर भूषण जैसा कोई वीर रस का कवि बैठा था, तो मैथिलीशरण गुप्त की तरह लोगों की दुर्दशा पर लिखने और रोने वाला एक राष्ट्रकवि भी।
दिनकर की लेखनी में अगर हर्ष है तो पीड़ा भी है। खुशी है तो वेदना भी है। निराशा है तो आशा की उम्मीद भी है। व्यवस्था के प्रति क्षुब्धता है तो एक नई सवेरा की उम्मीद भी है। हताशा है तो उससे उबरने की ताकत भी है। अतीत को समेटे, वर्तमान को उसी रूप में दर्शाते और भविष्य की राह बताते दिनकर अपनी रचनाओं में राष्ट्र प्रेम और राष्ट्र धर्म को सबसे ऊपर रखते हैं और यही बात दिनकर को राष्ट्रकवि बनाती है।
दिनकर जितने बड़े ओज, शौर्य, वीर और राष्ट्रवाद के कवि हैं उतने ही बड़े संवेदना, सुकुमारता, प्रेम और सौंदर्य के कवि भी हैं। दिनकर ने अपनी रचनाओं में संवेदनाओं का बड़ा मर्म चित्रण किया है। प्रणभंग से लेकर हारे को हरिनाम तक में इसे आसानी से देखा जा सकता है।
दरअसल दिनकर की काव्य लेखन उस युग से आरम्भ होती है जब गोरी सरकार के अत्याचारों के प्रतिरोध में देश का हर नौजवान सीना तान कर खड़ा था। ये वो समय था जब देश का छितिज नवयुवकों की छाती से निकलते हुए खून से लाल हो रहा था। कोड़े खाते हुए निर्दोष जनता के मुँह से निकलती हुई वन्दे मातरम् की हर आवाज़ एक नई आगाज़ का संदेश दे रही थी और फाँसी पर झूलते हुए निर्भिक चेहरे भविष्य के पट पर लिखे हुए इतिहास की आहट सुना रहे थे।
दिनकर ने उस दौर में इतिहास की इन घटनाओं को कसौटी पर कसते हुए लिखा–
“जब भी अतीत में जाता हूँ,
मुर्दों को नहीं जिलाता हूँ।
पीछे हटकर फेंकता बाण,
जिससे कम्पित हो वर्तमान”
दरअसल दिनकर जिस परिवेश में पले-बढ़े थे उसमें उन्होंने अंग्रेजों के अत्याचार को करीब से देखा और झेला था और इसे लेकर उनके मन में भारी आक्रोश था। वहीं साहित्य और इतिहास के ज्ञान ने उन्हें सामंतवाद और उपनिवेशवाद के अत्याचारी गठबंधन और समाज पर पड़ने वाले उसके नकारात्मक प्रभावों के खिलाफ खड़े होने पर मजबूर कर दिया। ऐसे में अगर उनके उग्र विचारों में राष्ट्रीय चेतना संपन्न कवि का रूप उभर कर सामने आया तो उसमे तत्कालीन परिवेश और पृष्ठभूमि का बहुत बड़ा योगदान था।
परिवेश के साथ ही परिस्थितियों ने भी दिनकर के व्यक्तित्व को गढ़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
घर पर नियमित रूप से होने वाले रामचरितमानस का पाठ और बचपन में ही मैथिलीशरण गुप्त और माखनलाल चतुर्वेदी जैसे राष्ट्रीय कवियों की रचनाओं ने दिनकर के विचार और व्यक्तित्व को काफी प्रभावित किया। साथ ही स्वतंत्रता संग्राम, समकालीन विश्व के अनेक देशों में चल रही आजादी का संघर्ष, गांधी जी के विचार, लेनिन का नायकत्व, भगत सिंह और गणेश शंकर विद्यार्थी की शहादतें, स्वामी सहजानंद सरस्वती का किसान आंदोलन, विवेकानंद, राजा राममोहन राय, दयानंद सरस्वती और दो-दो विश्व युद्धों की विभीषिका ने दिनकर के विचारों और अभिव्यक्ति को एक नई दिशी दी।
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ज्यादातर कवि गांधी और मार्क्स के विचारों के द्वन्द में झूल रहे थे। दिनकर भी इससे अछूते नहीं थे। एक और गांधी जी की अहिंसक नीति और सत्याग्रह तो दूसरी ओर चन्द्रशेखर आजाद और भगत सिंह के क्रांति कार्य थे। ऐसे में जब अहिंसक सत्याग्रह की राजनीति से युवाओं की आस्था हिलने लगी थी तब दिनकर ने अपनी इस मन:स्थिति को हिमालय कविता में कुछ इस ढंग से प्रस्तुत किया।
“रे, रोक युधिष्ठिर को न यहाँ,
जाने दे उनको स्वर्ग धीर,
पर, फिरा हमें गाण्डीव गदा,
लौटा दे अर्जुन भीम वीर” ।
हिमालय से दिनकर की जो उपनिवेशवाद विरोधी उग्र राष्ट्रीय काव्य धारा चली, उसकी परिणति हुंकार, कुरुक्षेत्र और परशुराम की प्रतिक्षा में देखने को मिली।
राष्ट्रीयता की यह भावना समय और हालात के साथ उनकी लेखनी में और उग्र होती चली गई। अँगरेज़ों के जुल्म और युद्ध की परिणति ने दिनकर को विचलित कर दिया था। उन्होंने युद्ध के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह खड़ा करते हुए ‘कुरुक्षेत्र’ जैसा ग्रन्थ लिखा। कुरुक्षेत्र में तो दिनकर ने जैसे अपनी आत्म संघर्ष की पूर्ण परिणति ही कर दी। उन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध की विभिषिका देखी थी। उनके सामने महात्मा गांधी का सत्य और अहिंसा पर आधारित स्वाधीनता आंदोलन था, जिससे प्रभावित होकर उनमें एक वैचारिक द्वंद्व उठ खड़ा हुआ कि अत्याचार और अन्याय का विरोध अहिंसा के जरिए करना ठीक है या कृष्ण द्वारा हिंसामूलक युद्ध की नीति उचित है। यैसे में दिनकर युद्ध के औचित्य पर सवाल खड़ा करते हुए कहते हैं…
“शांति नहीं तब तक, जब तक,
सुख-भाग न नर का सम हो।
नहीं किसी को बहुत अधिक हो,
नहीं किसी को कम हो।“
कुरुक्षेत्र को अपने समय का आक्रोश का काव्य भी कहा गया है। कुरुक्षेत्र के प्रकाशन के साथ ही दिनकर उत्तर छायावाद काल के सबसे बड़े कवि के रूप में प्रतिष्ठित हो गए।
दिनकर, जितने कठोर उपनिवेशवाद को लेकर थे उतने ही संवेदनशील मानवता को लेकर भी थे। उन्नीस सौ सैंतालीस में भारत के विभाजन को लेकर दिनकर ने जैसे देश की आत्मा का पूरा दर्द इन शब्दों में ढाल दिया है-
“हाथ की जिसकी कड़ी टूटी नहीं,
पाँव में जिसके अभी जंजीर है।
बाँटने को हाय तौली जा रही,
बेहया उस कौम की तकदीर है”।
वहीं, दूसरी ओर दिनकर ने आज़ादी को नया सूर्योदय भी कहा और इसका पूरा श्रेय भारत की जनता को दिया। दिनकर ने स्वतंत्रता का अपने निराले अंदाज में स्वागत किया और पहले गणतंत्र दिवस के अवसर पर उनकी लिखी कविता बाद में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में 1974 के संपूर्ण क्रांति की नारा बनी।
“सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है।
दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है”।
दिनकर की कविताओं में अगर विद्रोह है, विस्फोट है, तो जीवन की निर्बाध गति भी है। दिनकर की कला में स्वप्नों का सौन्दर्य नहीं है, उसमें जीवन के संघर्षों का सौन्दर्य है। ‘विपथगा’ कविता में दिनकर समाज में व्याप्त विषमता और व्यवस्था के प्रति बगावती तेवर अपना लेते हैं।
“श्वानों को मिलता दूध-वस्त्र, बच्चे भूखे अकुलाते हैं,
माँ की हड्डी से चिपक, ठिठुर जाड़ों की रात बिताते है
युवती के लज्जा वसन बेच जब ब्याज चुकाए जाते हैं,
मालिक जब तेल-फुलेलों पर पानी सा द्रव्य बहाते हैं,
पापी महलों का अहंकार देता मुझको तब आमंत्रण।“
दिनकर ने अपने साहित्य के जरिए न केवल रूढ़ियों का पुरजोर विरोध किया बल्कि दलितों, शोषितों पर हो रहे अत्याचारों के ख़िलाफ़ जमकर आवाज़ भी उठाई। जाति व्यवस्था को केंद्र में रखकर दिनकर ने अपना सबसे लोकप्रिय प्रबंध काव्य ‘रश्मिरथी’ लिखी। रश्मिरथी में दिनकर ने कर्ण के जरिए जाति व्यवस्था से उत्पन्न अनेक विसंगतियों और सामाजिक कुरीतियों पर प्रश्न खड़े किए हैं। दिनकर की रश्मिरथी उनकी वाणी की उस शक्ति का प्रतीक है जिसने हर तरह की विषमता का खुलकर मुकाबला किया।
“ऊँच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है,
दया धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है।
क्षत्रिय वही, भरी हो जिसमें निर्भयता की आग,
सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप-त्याग।“
परिस्थितियों के दबाव में कभी-कभी दिनकर आक्रान्त भी हो जाते थे। 1962 में भारत पर हुए चीनी आक्रमण ने उनके अन्तर्मन को झकझोर दिया। इस हमला ने अहिंसा और गांधीवाद के प्रति दिनकर की आस्था को जड़ से हिला दिया। सारा देश छुब्ध और आवेशित था। दिनकर का पौरुष एक बार फिर हुंकार उठा। वो ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ के माध्यम से राष्ट्र के आहत स्वाभिमान के प्रतीक बनकर फूट पड़े।
“गरजो, अम्बर को भरो रणोच्चारों से,
क्रोधान्ध रोर, हाँकों से, हुंकारों से।
यह आग मात्र सीमा की नहीं लपट है,
मूढ़ो ! स्वतंत्रता पर ही यह संकट है।“
बहुआयामी प्रतिभा के धनी दिनकर की कविता भी बहुरंगी है। वे केवल ओज, शौर्य और सहजता के कवि ही नहीं है। वे प्रेम, सौंदर्य और गीतात्मकता के कवि भी है। वस्तुत: दिनकर राष्ट्रीयता और श्रृंगार को लेकर शुरू से ही दुविधाग्रस्त रहे। उनका चेतन मन जहाँ परिस्थितियों के दबावों से ग्रस्त रहा वहीं उनका अवचेतन प्रेम सौन्दर्य के सरोवर में आकंठ डूबा रहा। वे प्रणव के सरोवर में केवल डूबते और उतराते ही नहीं रहे, बल्कि प्रेम और सौन्दर्य के सत्य को जान लेने के लिए भी लगातार प्रयासरत रहे। उनके अनेक कविताओं में रूमानियत और सौन्दर्य की ये प्रवृत्ति दिखाई देती है।
रसवन्ती, मानवती से शुरू हुई दिनकर की सौन्दर्य कविता ‘उर्वशी’ में अपने चरम पर पहुँच गई। उर्वशी में दिनकर का एक नया रूप दिखा। दरअसल उर्वशी दिनकर की रूमानी संवेदना की चरम पराकाष्ठा है।
भारतीय ज्ञानपीठ से सम्मानित इस रचना में काम जैसे मनोभाव को स्वीकार करने और उसे आध्यात्मिक गरिमा तक पहुँचाने के लिए जिस साहस की जरूरत थी वो दिनकर में मौजूद था। उर्वशी में अर्धनारीश्वर का अर्थ समझाते हुए कहते हैं- जिस पुरुष में नारीत्व नहीं वह अधूरा है, और जिस नारी में पुरुषत्व नहीं वह भी अपूर्ण है। दरअसल दिनकर में पौरुष की हुंकार थी तो स्त्री का प्रेम भी। तभी तो दिनकर उर्वशी में कहते हैं।
“मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूँ मैं,
उर्वशी ! अपने समय का सूर्य हूँ मैं।
अंध तम के भाल पर पावक जलाता हूँ,
बादलों के सीस पर स्यंदन चलाता हूँ।“
इसमें कोई शक नहीं कि उर्वशी प्रेम की अतीन्द्रियता की कविता है। वह आत्मा के तल पर पहुँच कर निस्पंद हो जाने वाले काम की कविता है। वह जीवन के उदात्त क्षणों के अनुभूति की अभिव्यक्ति है।
दिनकर के व्यक्तित्व के एक नहीं अनेक रूप थे। इसी के अनुरूप उन्होंने अपनी रचनाओं के साथ ही सार्वजनिक जीवन में प्रगतिशील और आधुनिक समाजवादी चिंतन को पर्याप्त महत्व दिया। गांधी जी के व्यक्तित्व ने उनके चिंतन को एक ख़ास दिशा दी, तो नेहरू के सामासिक संस्कृति के दर्शन ने दिनकर के राष्ट्रीय चिंतन को बहुत दूर तक प्रभावित किया। दिनकर की संस्कृति के चार अध्याय इस चिंतन की सर्जनात्मक अभिव्यक्ति थी। संस्कृति के चार अध्याय ने उन्हें गद्य लेखक के रूप में बौद्धिक समाज में पूरी प्रतिष्ठा के साथ स्थापित कर दिया।
‘संस्कृति के चार अध्याय’ उनकी गहन गवेषणा, सूक्ष्म अन्वेषण, भारतीय संस्कृति से उद्दाम प्रेम का विशिष्ट उपाहार तो है ही, उनकी विलक्षण क्षमताओं का अत्यंत सजीव प्रमाण भी है।
समय और परिस्थितियों से दिनकर भी अछूते नहीं रहे। यही वजह रही कि समय के साथ-साथ उनकी कविता भी बदलती रही। स्वतंत्रता से पहले दिनकर आज़ादी के लिए अलख जाते रहे, तो स्वतंत्रता के बाद आम जनता की आवाज़ बन गए। आज़ादी से पहले भी भारत की जनता दिनकर के दिल पर राज करती थी और आज़ादी के बाद भी करती रही। तभी तो जिस दिनकर की वीर रस में डूबी कविताओं के बगावती तेवर देखकर अँगरेज़ भी घबराते थे, वही दिनकर आज़ादी के बाद देश की आवाज़ बन गए और फिर देश के राष्ट्रकवि।
दिनकर 1952 से 1963 तक राज्यसभा के सांसद रहे और दिल्ली का सच देखते रहे। दिल्ली की विलासपूर्ण जीवन और गाँवों की बदहाली पर उन्होंने 1954 में ‘भारत का यह रेशमी नगर’ कविता लिखा।
“दिल्ली फूलों में बसी, ओस-कण से भीगी, दिल्ली सुहाग है, सुषमा है, रंगीनी है,
प्रेमिका-कंठ में पड़ी मालती की माला, दिल्ली सपनों की सेज मधुर रस-भीनी है।“
दिनकर ने कभी भी अपने साहित्य के आदर्शों को लेकर समझौता नहीं किया। उन्होंने भ्रष्टाचार में डूबे देश के कटु सच को बिना किसी डर-भय के कहने में कभी कोताही नहीं बरती-
“टोपी कहती है, मैं थैली बन सकती हूँ,
कुरता कहता है मुझे बोरिया ही कर लो।
ईमान बचाकर कहता है, आँखें सबकी
बिकने को हूँ तैयार खुशी से जो दे दो।“
इतना ही नहीं वे देश और जनता की सुख-दुख से अंजान बने नेताओं और बुद्धिजीवियों को भी आगाह करने से नहीं चुकते।
“समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।“
दरअसल दिनकर का मुख्य सरोकार जनता के लिए था, उनके दुःख दर्द लिखने, उनकी पीड़ा कहने से था। जनता की दुख और बदहाली उन्हें हर हाल में उद्वेलित करते रहे। आजादी से पहले भी और आजादी के बाद भी। आज़ादी के बाद भी जब किसानों की स्थिति में कोई बदलाव नहीं दिखा तो दिनकर कह उठे-
“जेठ हो कि पूस, हमारे कृषकों को आराम नहीं है,
छूटे कभी संग बैलों का ऐसा कोई याम नहीं है।
मुख में जीभ शक्ति भुजा में जीवन में सुख का नाम नहीं है,
वसन कहाँ? सूखी रोटी भी मिलती दोनों शाम नहीं है।“
हिंदी साहित्य के इतिहास में ऐसे लेखक बहुत कम हुए हैं जो सत्ता के भी करीब रहे हों और जनता में भी उसी तरह लोकप्रिय हों। जो जनकवि भी हों और साथ ही राष्ट्रकवि भी। दिनकर का व्यक्तित्व इन विरोधों को अपने भीतर बहुत सहजता से साधता हुआ चला था।
यही वजह थी कि राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जीवन भर करोड़ों लोगों की आवाज बनकर देश में गूंजते रहे।
जीवन भर राष्ट्र प्रेम का अलख जगाने वाले राष्ट्रकवि दिनकर 24 अप्रैल 1974 को इस दुनिया से चले गए। दिनकर के चले जाने से वह कंठ मौन हो गया, जिसने अपने गर्व भरे स्वरों में घोषित किया था-
“सुनूँ क्या सिंधु मैं गर्जन तुम्हारा,
स्वयं युग धर्म का हुंकार हूँ मैं”।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर मर कर भी अमर हैं और इसकी गवाह है उनकी रचनाएँ, जो जन-जन की जुबान पर हैं। उनकी रचनाएं कल भी प्रासंगिक थीं, आज भी हैं और आगे भी रहेंगी।
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4 months ago
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