भारत का विभाजन दुनिया की सबसे दर्दनाक घटनाओं में से एक है। इस ट्रेजडी का शिकार भारत के लाखों-करोड़े लोग हुए। पाकिस्तान बनने के बाद लोगों को अपने घर-गाँव से हिजरत (प्रवास) करनी पड़ी। इस प्रवास में उन्हें अपने घर-बार, खेत-खलिहान, दोस्त, नाते-रिश्तेदार और न जाने क्या क्या छोड़ना पड़ा। अब बस उनके पास पुराने दिनों की याद ही बाक़ी थी वो दिन अब कभी नहीं लौटने वाले थे। इस बंटवारे का असर सिर्फ भारत के समाज, संस्कृति पर ही नहीं साहित्य पर भी हुआ। 50 के दशक में बंटवारे का दर्द साहित्य का मुख्य विषय बन गया। और लेखकों और शायरों ने इस पर खूब उपन्यास, कहानियाँ, ग़ज़लें लिखीं। ऐसे ही एक ग़म के मारे शायर थे नासिर काज़मी।
नासिर काज़मी का जन्म 8 दिसम्बर 1925 को हरियाणा के अम्बाला ज़िले में हुआ। उनके पिता सैयद मुहम्मद सुल्तान काज़मी अंग्रेज़ी फौज में सूबेदार थे। नासिर ने अपनी स्कूली तालीम अम्बाला में प्राप्त की और उसके बाद लाहौर गवर्नमेंट कॉलेज से बी.ए. करने लगे। लेकिन वह बीच मे ही छोड़नी पड़ी। नासिर 1940 से शायरी करने लगे थे। शुरुआत में वह अख़्तर शीरानी से मुतास्सिर थे, और रूमानी शायरी करते थे। फिर हफ़ीज़ होशियारपुरी के शागिर्द होने के बाद ग़ज़लें कहने लगें। नासिर काज़मी की शुरुआती शायरी इश्क़ और मुहब्बत की शायरी है। और इसके पीछे का कारण था उनका आशिक़ाना मिजाज़। बक़ौल नासिर काज़मी "इश्क़, शायरी और फ़न यूँ तो बचपन से ही मेरे ख़ून में है, लेकिन इस ज़ौक़ की परवरिश में एक दो माशक़ों (माशूक़ाओं) का बड़ा हाथ रहा"। इश्क़ पर कहे नासिर काज़मी के कुछ अशआर मुलाहिज़ा फरमाएँ।
दिन भर तो मैं दुनिया के धंदों में खोया रहा
जब दीवारों से धूप ढली तुम याद आए
दिल धड़कने का सबब याद आया
वो तिरी याद थी अब याद आया
एक दम उस के होंट चूम लिए
ये मुझे बैठे बैठे क्या सूझी
ऐ दोस्त हम ने तर्क-ए-मोहब्बत के बावजूद
महसूस की है तेरी ज़रूरत कभी कभी
नासिर विभाजन के बाद लाहौर आ गए। यहाँ उन्होंने 'औराक़े-नौ' नाम से एक पत्रिका निकाली लेकिन आर्थिक तंगी की वजह से उसको बन्द करना पड़ा। फिर वह मशहूर पत्रिका 'हुमायूँ' में मुख्य संपादक के रूप में कार्य करने लगे। नासिर भले अपने शहर अम्बाला को छोड़ कर पाकिस्तान चले गए लेकिन अम्बाला को वह कभी नहीं भुला सके, अपनी ज़मीन से बिछड़ने का दुःख उन्हें ता-उम्र सालता रहा। 'निशात-ए-ख़्वाब' नज़्म में वो कहते हैं -
अंबाला एक शहर था सुनते हैं अब भी है
मैं हूँ उसी लुटे हुए क़र्ये की रौशनी
ऐ साकिनान-ए-ख़ित्ता-ए-लाहौर देखना
लाया हूँ उस ख़राबे से मैं लाल-ए-मादनी
ख़ुश रहने के हज़ार बहाने हैं दहर में
मेरे ख़मीर में है मगर ग़म की चाशनी
बकौल आफ़ताब अहमद "हिजरत के तजुर्बे ने नासिर को इस हद तक प्रभावित किया कि वह उसकी जान का रोग बन गया। इस तजुर्बे में स्थान और समय दोनों से नासिर की दूरी और अजनबीयत का एहसास एक ही समय में जमा हो गया था। अगले वक़्तों और पुरानी सुहबतों की याद नासिर की शायरी का नींव का पत्थर साबित हुई। यह अजनबी मुसाफ़िर उम्र भर समय और स्थान की दुनिया के बीच खड़ा, समय और स्थान की एक दूसरी दुनिया ही के ख़्वाब देखता रहा जिसे ख़ुद नासिर ने भी स्वीकार किया है।" इस बात की तस्दीक़ नासिर के यह शेर करते हैं
वही वक़्त की क़ैद है दरमियाँ
वही मंज़िलें और वही क़ाफ़िले
ख़यालों में ही अक्सर बैठे बैठे
बसा लेता हूँ एक दुनिया सुहानी
एक अनोखी बस्ती ध्यान में बसती है
इस बस्ती के वासी मुझे बुलाते हैं
उदासी और तन्हाई नासिर काज़मी की दो सहेलियाँ थीं जिन्हें उन्होंने अपनी शायरी ही नहीं जिंदगी का भी अहम हिस्सा बना लिया था। वो पूरी पूरी रात सोते नहीं थे, जब सुबह चिड़ियों का चहचहाना शुरू होता तब कहीं नासिर की आँखों में नींद घर करना शुरू करती थी नासिर ने रात के हवाले से बहुत शेर कहे हैं।
नींद आती नहीं तो सुबह तलक
गर्द-ए-महताब का सफ़र देखो
कहाँ है तू कि तिरे इंतिज़ार में ऐ दोस्त
तमाम रात सुलगते हैं दिल के वीराने
रात कितनी गुज़र गई लेकिन
इतनी हिम्मत नहीं कि घर जाएँ
वो कोई दोस्त था अच्छे दिनों का
जो पिछली रात से याद आ रहा है
मैं सोते सोते कई बार चौंक चौंक पड़ा
तमाम रात तिरे पहलुओं से आँच आई
तुझ को हर फूल में उर्यां सोते
चाँदनी-रात ने देखा होगा
नासिर को ईश्वर से बहुत कम उम्र अता हुई महज़ 47 साल की उम्र में पेट का कैंसर से उनकी मृत्यु हो गई। उनके जीते जी उनका सिर्फ एक मजमूआ 'बर्गे-नै' (1952) नाम से प्रकाशित हुआ। बाकी संग्रह 'दीवान' (1972), पहली बारिश (1975), निशात-ए-ख़्वाब (1977) आदि उनकी मृत्यु के पश्चात प्रकाशित हुए। नासिर को तमाम उम्र हिजरत का दुख रहा लेकिन उनके दिल में सब कुछ पहले जैसा हो जाने की एक उम्मीद भी बाक़ी थी
वक़्त अच्छा भी आएगा 'नासिर'
ग़म न कर ज़िन्दगी पड़ी है अभी।
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एक वर्ष पहले
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