यह वाक़या हरिवंशराय बच्चन की किताब 'क्या भूलूं क्या याद करूं' से लिया है जो राजपाल प्रकाशन से प्रकाशित हुई है। हरिवंशराय बच्चन लिखते हैं कि
'मधुशाला' की पैरोडी उसके प्रथम पाठ के साथ ही आरंभ हो गयी थी। दिसम्बर '33 में जिस दिन मैंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के शिवाजी हॉल में 'मधुशाला' सुनाई थी उसके दूसरे दिन ही प्रो. मनोरंजन प्रसाद ने उसके कई पदों की पैरोडी लिखा डाली थी, और दूसरे दिन के मेरे कविता -पाठ के बीच सुनाई थी। 'सरस्वती' में प्रकाशित दस रूबाईयां देखकर ही हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में टिप्पणियां अथवा पैरोडियां लिखी जाने लगी थीं, कवि-सम्मेलनों में सुनाई जाने लगी थीं। पुस्तक प्रकाशन के बाद और बढ़ीं। पटना का 'योगी' - रामवृक्ष बेनीपुरी के सम्पादकत्व में - प्रति सप्ताह 'मधुशाला' के विरुद्ध कुछ न कुछ लिखा करता था। सीधे उत्तर तो मैंने न दिया था, पर 'हाला' (मधुबाला) शीर्षक कविता में एक पद मैंने लिखा था जिसका संकेत पटना के 'योगी' के प्रति ही था,
रे वक्र भ्रुओं वाले योगी!
दिखला मत मुझको वह मरुथल
जिसमें जाकर खो जाएगी
मेरी द्रुत गति, मेरी ध्वनि कल।
है ठीक अगर तेरा कहना,
मैं और चलूंगी इठलाकर
संदेहों में क्यों व्यर्थ पड़ूं,
मेरा तो है विश्वास अटल -
मैं जिस जड़ मरू में पहुंचूंगी
कर दूंगी उसको जीवनमय।
उल्लास-चपल, उन्माद तरल,
प्रतिपल पागल, मेरा परिचय।
बेनीपुरी ने तो यहां तक धमकी दी थी कि, "अगर बच्चन बिहार में पाँव रखेगा तो मैं उसको गोली मार दूंगा।" कुछ महीने बाद मुज़फ़्फ़रपुर से मेरे लिए एक कवि-सम्मेलन का निमन्त्रण आया। श्यामा ने कहा, "बिहार न जाव, बेनीपुरी तुमका गोली मार दैइहैं।" मैंने उसे जवाब दिया कि, "अगर बेनीपुरी हमका गोली मार दैइहैं तो 'मधुशाला' अमर होय जाई।"
मैं मुज़फ़्फ़रपुर गया था, पर वहां गोली मारने के लिए बेनीपुरी नहीं थे। बाद को तो बेनीपुरी मेरे बड़े अच्छे मित्र हो गए थे।
कमेंट
कमेंट X