मशहूर शायर शहरयार की शायरी में चौंकानेवाली आतिशबाज़ी से दूर एक शाइस्तगी है। उनके शब्दों में कुछ अक्स उभरते हैं लेकिन वह सफर के उस पेड़ की तरह नहीं होते जो झट से गुज़र जाते हैं बल्कि उस पेड़ की तरह होते हैं जो दूर चलते हुए देर तक मुसाफ़िर का साथ देते हैं।
शहरयार की शायरी में जो शास्त्रीय रचाव, अनुभवों की विविधता, आधुनिक जीवन बोध और वक्त पर सही बात कलात्मक ढंग से कहने का सलीका है, वह उन्हें दूसरों से अलग और विशिष्ट करता है। वक्त की नब्ज़ पर उनका हाथ हमेशा ही बना रहता है, इसलिए वे देश-विदेश सभी जगह बेहद पसंद किए जाते हैं। शहरयार के क़रीबी दोस्त और प्रख्यात साहित्यकार कमलेश्वर ने अपने दोस्त के संबंध में लिखा है कि हिंदुस्तानी अदब में शहरयार वो नाम है जिसने छठे दशक की शुरुआत में शायरी के साथ उर्दू अदब की दुनिया में सफ़र शुरू किया।
यह वह दौर था जब शायरी दो धाराओं में बह रही थी। एक परंपरा को नकार कर बग़ावत को सबकुछ समझ रही थी तो दूसरी अनुभूति, शैली और जदीदियत की अभिव्यक्ति के बिना नया होने का दावा कर रही थी। शहरयार ने दूसरी धारा को चुना।
नए निखरे हुए एक अलग अंदाज़ में उन्होंने अपनी पेशगी दी। इस अंदाज़ का नतीजा था उनके गहरे समाजी तजुर्बे, जिसके तहत उन्होंने यह तय कर लिया था कि बिना वस्तुपरक वैज्ञानिक सोच के दुनिया में कोई सपना नहीं देखा जा सकता। वे अपनी तन्हाइयों और वीरानियों के साथ-साथ दुनिया की खुशहाली और अमन का सपना पूरा करने में भी लगे रहे। इसमें गंगा जमुना तहज़ीब का भी बड़ा योगदान रहा। क़ायदे से इस तहज़ीब ने उन्हें पाला-पोसा और वक़्त-वक़्त पर उन्हें सजाया, संभाला और सिखाया।
वालिद चाहते थे कि शहरयार उन्हीं की तरह पुलिस अफ़सर बन जाएं। उन्होंने कोशिश की, दारोगा का फार्म भी लाया लेकिन शहरयार ने झूठ बोल दिया और फार्म जमा नहीं किया। शहरयार अपने इलाक़े की सांझी तहज़ीब को ही अपना मज़हब समझ बैठे। उन्हें उर्दू और हिंदी के बीच की दीवार झूठी नज़र आने लगी।
शहरयार की जिंदगी का एक बहुत बड़ा हिस्सा अलीगढ़ शहर में बीता है। यहीं उन्होंने अदब और शायरी का पहला हरफ़ सीखा। इस शहर ने हिंदी और उर्दू दोनों ही ज़ुबानों में बहुत से अदीब बनाए। फिरक़ापरस्ती का बदनुमा दाग़ भी इसी शहर के माथे पर निहित स्वार्थी लोगों ने चस्पां कर रखा है। पर ये शहर सांझी तहज़ीब का नुमाइंदा है और सेक्यूलर है। शहरयार इसी की देन है। यह शहर नहीं बल्कि हिंदुस्तानी तहज़ीब का एक इदारा है जहां उर्दू और हिंदी के बीच कोई दीवार नहीं है।
शहरयार की हमेशा कोशिश यही रही कि वे शायरी के साथ-साथ अपनी घरेलू ज़िंदगी को मुकम्मल रख सकें। एक वालिद की हैसियत से उन्होंने कभी अपने बेटों पर अपनी मंशा नहीं थोपीं और खुद पिता के रूप में पूरी मेहनत भी की। वे चाहते थे कि उनका बड़ा बेटा पढ़ने लिखने में दिलचस्पी ले, इसलिए खुद अच्छी कहानियां लिखते और उसे पढ़ने को देते। बच्चों के लिए नज्में लिखते और सुनाते। इसमें एक हद तक उन्हें सफलता भी मिली। नतीजन तीनों बच्चे काम में लग गए।
शहरयार की उनकी बेगम नजमा के साथ नहीं बनी, इसी वजह से उनका जीवन एकांत में कटा। यह एक अजीब सी तकलीफदेह तनहाई है, जिसे दोनों एक साथ, एक दूसरे से अलग रह के साथ-साथ जीते हैं। इसकी गवाह नजमा के नाम लिखी शहरयार की एक नज्म है जो किसी भी साहित्य में अपनी तरह की अकेली कविता है।
शायरी में इस मुकाम तक पहुंचने के बाद भी आज शहरयार अदब पर कोई बड़ी तक़रीर नहीं करते। न लोगों को सुनाने के लिए कभी पीछा करते हैं। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि जो उन्हें कहना चाहिए, कहते न हों, हां ये दूसरी बात है कि उनके कहने का अंदाज़ कुछ अलग है। वह वैज्ञानिक वस्तुपरक विचारधारा पर भरोसा करते हैं।
उन्हें यह आभास है कि आज़ादी के बाद भी मुल्क को बहुत कुछ हासिल करना है। उन्होंने अपनी शायरी में मानवीय मूल्यों को सबसे आगे रखा। उनका मानना है कि अदब को भाषाओं की सीमा में बांधा नहीं जा सकता। शायरी हो या अफ़साना शहरयार बार-बार इस बात पर ज़ोर देते हैं कि जो लिखना है जमकर लिखो और इतना लिखो कि अपने लिखे को भी जी भर के ख़ारिज कर सको, जिससे साहित्य जो सामने आए तो ख़ूबसूरत और असरदार बन सके। इसके साथ ही वह बहसों में न हिस्सा लेते हैं और न शरीक होते हैं क्योंकि वह किसी भी कीमत पर अपना सकून खोना नहीं चाहते।
(ऐसा शहरयार के बारे में कमलेश्वर लिखते हैं )
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2 months ago
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