किताबें किसी रेल के समान हैं जिनमें बैठकर कोई पाठक यात्रा करता है। लेखक का दायित्व है कि उसका पाठक किसी स्टेशन पर चेन खींच कर उतर न जाए। यहाँ निर्मल ऐसे हैं जो अनिवार्य रूप से आपको अंत तक पहुँचा ही देते हैं। निर्मल की रेल यात्रा सुगम नहीं है। वह सदैव पहाड़ों से होकर गुज़रती है देवदार और चीड़ के वृक्षों के मध्य। फिर मन की ऐसी सुरंग में ले जाती है जहाँ आप विस्मय से सोचते हैं कि अपने भीतर इतना गहरा हिस्सा भी रहता है। अक्सर रेल किसी बीहड़ के पास लैम्पपोस्ट के नीचे खड़ी रहती है तो कभी ‘चहबच्चों’ के बीच से गुज़रती है, कितने ‘गढ़हों’ को पार करते हुए।
उनके पात्र, आपके सहयात्री जिनका आपसे कई निजी संबंध नहीं है लेकिन फिर भी जब वे आपस में संवाद करते हैं तो आपको अपने भूगोल के विचरण पर मजबूर करते हैं। निर्मल जीवन के लेखक नहीं हैं वह मन के ज्योतिषी हैं। अंतिम अरण्य के प्रारम्भ में ही आप जानते हैं किताब का अंत फिर भी यात्रा करते हैं और वह आपको अवसाद के दूसरे छोर पर छोड़ देती है, अकेले। ‘वे दिन’ पढ़ने के बाद मैंने कई-कई बार देखीं प्राग की तस्वीरें वहाँ का टाउन स्क्वायर और चार्ल्स ब्रिज।
पिछले सितम्बर पटनीटॉप में मुझे जब खिड़की से देवदार के वृक्ष दिखे और उनके पार सड़क पर पड़ती पीली रौशनी तो निर्मल करीब ही लगे। जैसे अभी इसी सड़क पर टहलते हुए वह अपने उपन्यास का अगला हिस्सा लिख रहे होंगे। कितना अजीब है कि पहाड़ों की ऊँचाई पर मन गहरा होता जाता है। फिर निर्मल तो मन के ज्योतिषी। मैं सोचती हूँ कि इन दिनों जीवन के ये 21 दिन अगर किसी पहाड़ पर गुज़रते तो शायद उनकी कुछ विद्या आती।
इंसान अपने मन के भीतर कोई खोह बनाए तो सभी एक से लगेंगे। देह के भीतर आत्माओ में तो कोई भेद नहीं होता। निर्मल का लेखन उसी खोह से निकल कर आता है। इसलिए जब आप निर्मल से बात करते हैं तो ख़ुद की थाह पाते हैं। वह लम्बे समय प्राग में रहे, वहाँ उन्होंने उस रेस्त्रां का ज़िक्र किया जहाँ रिल्के बैठे होंगे। मैं कभी गयी यदि प्राग तो सोचूँगी किसी बरसात में इसी ‘चहबच्चे’ से भीगे होंगे निर्मल के मोजे।
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