'फिर इस दुनिया से उम्मीद-ए-वफ़ा है
तुझे ऐ ज़िंदगी क्या हो गया है
बड़ी ज़ालिम निहायत बेवफ़ा है
ये दुनिया फिर भी कितनी ख़ुशनुमा है'
ज़िंदगी की बेवफ़ाई को इन अशआर में पिरोने वाले नरेश कुमार शाद ने सिर्फ़ 42 साल की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह दिया था। शाद उर्दू के उन चंद शायरों में से हैं जो कम उम्र में शायरी की दुनिया में मक़बूल हुए। अविभाजित भारत के पंजाब के होशियारपुर ज़िले में पैदा हुए शाद के पिता नौहरिया राम दर्द नाकोदरी उर्दू के एक जाने-माने पत्रकार थे। उर्दू और फ़ारसी का माहौल शाद को विरासत में मिला था। 1950 में सिर्फ़ 22 साल की उम्र में उनका पहला काव्य संग्रह 'दस्तक' प्रकाशित हुआ था। शुरुआत में वह शाद नाकोदरी के नाम से लिखते थे। दस्तक से वे रातों रात मशहूर हो गए। मुशायरों की दुनिया में भी उन्होंने अपना एक अलग मुक़ाम बनाया।
वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुई संस्मरण की किताब 'चेहरे' में निदा फ़ाज़ली लिखते हैं, "नरेश कुमार शाद से मैं कई बार मिला हूं। मुशायरों के स्टेज पर दिल्ली के काफ़ी हाउस में, मुंबई के रास्तों पर, अगल-अलग शहरों की महफ़िलों में, लेकिन वह जब भी मिले कभी पूरे नहीं मिले। हमेशा एक चौथाई या दो तिहाई ही नज़र आये। सुबह हो या शाम वह हर वक़्त महव-ए-जाम (शराब में मुग्ध) ही मिले। वह जितने बाहर होते थे उससे कहीं ज़्यादा शराब में छुपे। वो दुनिया के सामने न कभी होकर आये न दुनिया ने उन्हें पूरा देखने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की।
स्टेज पर होते हुए भी वह स्टेज से दूर होते थे। वह सबमें बैठे हुए भी सबसे जुदा होते ते। मोटर या स्कूटर की तरह उनका इंजन भी बग़ैर अल्कोहल के स्टार्ट नहीं होता था। शराब जो पहले कभी-कभी का क़िस्सा थी, अब उनकी शख़्सियत का लाज़मी हिस्सा थी। इस शराब ने उन्हें शोहरत भी बहुत दी और ज़हमत भी बहुत दी। शोहरत इस तरह की अदबी गपशप में उनका नाम अख़्तर शीरानी, मीराजी, जिगर मुरादाबादी या मज़ाज की बलानोशी के सिलसिले में लिया जाता था। उसकी ज़हमत के अंतर्गत उनकी हड्डियों के कई फ्रैक्चर्स, फालिज और दूसरी बीमारियां, हाथापाइयां और कई मुलाज़मतों से अलैहदगीयां (बर्ख़ास्तगी) आती थीं, वह जब तक हयात रहे; किसी न किसी ख़बर के साथ रहे।"
फाज़ली लिखते हैं, "वह अच्छे शायर थे। प्रोज (नस्र) में भी रवां थे। मुसलसल लिखते रहे थे। हिंदो-पाक की मैगज़ीनों में छपते भी थे। ज़हानत, विरासत क़ुदरत की देन होती है। लेकिन उस को संवारने सजाने के लिए जो मेहनत और रियाज़त (तपस्या) की ज़रूरत होती है उसकी मोहलत नरेश कुमार शाद ने अपने आप को नहीं दी। इसका उन्हें ख़ुद भी एहसास था। उन्होंने अपनी जीवनी में एक जगह लिखा है - 'शाद की आदत का ज़िक्र उसकी शराब नौशी के बग़ैर मुकम्मल नहीं हो सकता बल्कि मैं तो यहां तक कहूंगा कि उसकी तमाम आदतों का सर चश्मा ही शराब है। शुरू-शुरू में वह तफरीहन पिया करते थे। लेकिन अब तो यह लानत रात दिन की मुसीबत बन गयी है।" 'उनके अशआर हैं -
'घेर ले ग़म अगर ज़माने का
ढूंढ रास्ता शराब खाने का'
'जामो मीना है कैफ़ो मस्ती है
वाह क्या जश्ने तंगदस्ती है'
मुशायरों में अपना कलाम पेश करने का शाद का अंदाज़ काफ़ी दिलचस्प था। वो लोगों को ख़ुद के साथ जोड़े रखते थे। फाज़ली लिखते हैं, "शाद दो-चार साल के फ़र्क़ के साथ साहिर लुधियानवी, कैफ़ी आज़मी, मजरूह, सलाम मछलीशहरी के समकालीनों में थे। लेकिन उन समकालीनों की तरह इन पर किसी आंदोलन के डिसिपिलन का दबाव नहीं था। हालात और वक़्त की तब्दीलियों से भी शाद ने अपने लफ़्ज़ों से रूशनास (परिचित) नहीं कराया था। उन्होंने विरसात से जो पाया था उसी को अपने शब्दों में दोहराया था। उनकी शाइरी का बड़ा हिस्सा आशिक़ाना सरमस्ती, रिन्दी व मैंपरस्ती या मानूस शेरी ज़बां में ज़िंदगी की रायज सूरतों का बयान है। उसमें फ़िक्री गहराई और फर्द और समाज के रिश्ते की रानाई तो कम है मगर उस्तादाना बर्जस्तगी, ज़बान की ड्रामाई शाइस्तगी ने उसमें ताबिन्दगी पैदा की है।
शाद मुशायरों के भी कामयाब शाइर थे। वे तहत में (बिना गाए) पढ़ते थे लेकिन भारी आवाज़ और हाथ-पांव के चलाने के अंदाज़ के साथ जुमलेबाज़ियां और चुटकुले भी उनकी शेर ख़्वानी में शामिल रहते थे। उनके बाद मुशायरे में सिवाय दूसरे मज़ाहिया (हास्य) शाइर के किसी और का पढ़ना मुश्किल होता था। वह कलाम सुनाते ही नहीं थे, उसे दिखाते भी थे। मुशायरे शाइर को जहां बिगाड़ते है वहां संवारते भी है। लेकिन जो शाइर अपने एतमाद को छोड़कर सिर्फ़ मुशायरों की तालियों तक महदूद हो जाते हैं वह अदब में 'ला मौजूद' हो जाते हैं। नरेश कुमार शाद ने मुशायरों का नकारात्मक असर क़ुबूल किया औ कही-कहाई बातों को बार-बार दोहराते रहे और यूं अपनी ज़हानत को गंवाते रहे।"
शाद ने शराब छोड़ने की बहुत कोशिश की लेकिन कामयाब नहीं हो सके। कुछ वक़्त के लिए वह मयकशी से दूर तो हुए मगर छोड़ नहीं पाए। फाज़ली लिखते हैं, "शाद अकेले नहीं थे, वह एक भरे-पूरे घर के सदस्य थे। उनके घर में एक बूढ़ी मां, बीवी और बच्चे थे। घर की बढ़ती ज़िम्मेदारियों ने आख़िरी दिनों में उन्हें शराब से दूर भी कर दिया था। इस शऊरी दूरी ने उनकी कलम को काफ़ी तेज़ रफ़्तार कर दिया था। वह शमां और बीसवीं पत्रिकाओं के नाम सदी में शाइरों और अदीबों के लतीफ़े और उनके इंटरव्यूज़ लिखते थे। मुख़्तलिफ़ मैगज़ीनों में फ़रमाइशों पर ग़ज़लें कहकर छपवाते थे। खाते-पीते शौक़िया शाइरों को पैसों कलाम इनायत फरमाते थे। उन दिनों उनकी ग़ज़ल और नज़्म की कई किताबें भी छपी थीं। लेकिन शराब से उनकी इस दूरी की मुद्दत ज़्यादा दूर तक उनके साथ नहीं चल सकी।
शराब को उन्होंने एकदम छोड़ने की कोशिश की थी, जिसकी वजह से एक साथ कई बीमारियों से लड़ने के लिए उनके पास न दौलत थी, न उम्र थी। मजबूरन वह फिर से वैसे ही हो गये जैसे पहले थे। उनके और ज़माने के अंदाज़ में मेल मुमकिन नहीं था। उनकी ज़िंदगी शाइराना ज़रूर थी। लेकिन उनकी शाइरी उस ज़िंदगी से काफ़ी दूर थी।" उनका एक मुक्तक है -
'शबनमी पैरहन में रह-रह कर
यूं तेरा रूप मुस्कुराता है
जैसे जमुना की नर्म लहरों में
चांद का अक्स झिलमिलाता है'
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