अमर उजाला काव्य डेस्क, नई दिल्ली
गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी का असली नाम असरार अल हसन ख़ान है। मजरूह सुल्तानपुरी का जन्म उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के निजामाबाद गांव में हुआ। उनके अब्बा पुलिस महकमे में काम करते थे। बाद में मजरूह सुल्तानपुरी सुल्तानपुर में आकर मुशायरे करने लगे और इसके बाद उन्होने अपने नाम के आगे सुल्तानपुरी जोड़ लिया। तब से लोग इन्हें मजरूह सुल्तानपुरी के नाम से जानने लगे।
सुल्तानपुर में मुशायरों की सफलता से प्रभावित होकर मजरूह ने मुशायरों में आमद बढ़ा दी और 20वीं सदी के सबसे सफल उर्दू कवि और शायर जिगर मुरादाबादी के साथ बड़े शहरों में भी पैठ बनाना शुरू कर दिया। 1945 में मजरूह एक मुशायरे के लिए मुंबई आए। लोगों ने उनकी गजलों और नज्मों को खूब पसंद किया। इन सुनने वालों में फिल्म निर्माता ए आर कारदार भी थे। मजरूह के मिसरे सुनकर कारदार उनके गुरु जिगर मुरादाबादी के पास पहुंच गए और फिल्मों के लिए गीत लिखने की सिफारिश करने को कहा। लेकिन मजरूह ने फिल्मों के लिए गीत लिखने से मना कर दिया, उस वक्त अदबी तबके में इस तरह के काम को हल्का माना जाता था। फिर बहुत समझाने पर मजरूह माने और कारदार की फिल्म 'शाहजहां' के लिए लिखा, 'जब उसने गेसू बिखराए, बादल आए झूम के'
मजरूह सुल्तानपुरी भारत सरकार से मिलने वाले हिंदी सिनेमा के सबसे बड़े पुरस्कार दादा साहब फाल्के पुरस्कार पाने वाले पहले गीतकार थे। वर्ष 1993में मजरूह सुल्तानपुरी को दादा साहब फाल्के अवॉर्ड दिया गया। 50 और 60 के दशक में फैज अहमद फैज के साथ मजरूह गजल गायिकी में शीर्ष पर थे। मजरूह सुल्तानपुरी को 1964 में आई फिल्म दोस्ती के गाने 'चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे' गाने के लिए फिल्मफेयर बेस्ट लिरिसिस्ट के खिताब से भी नवाजा गया। इसके अलावा उन्हें 1980 में गालिब अवॉर्ड और 1992 में इकबाल अवॉर्ड से सम्मानित किया गया।
मजरूह सुल्तानपुरी को अपनी जिंदगी के दो साल जेल में भी गुजारने पड़े। हुआ कुछ यूं कि 1949 के आस पास मजरूह सुल्तानपुरी को सरकार विरोधी माना जाने लगा, वजह थी नेहरू के खिलाफ लिखी कविताएं। मजरूह सुल्तानपुरी ने इन कविताओ को जनता के बीच में कहा। इससे सरकार के खिलाफ बगावत के जुर्म में उन्हें जेल हो गई। बाद में कहते हैं कि सरकार ने उनके सामने यह शर्त रखी कि अगर वह लिखित माफी मांगते हैं तो उन्हें रिहा कर दिया जाएगा। लेकिन मजरूह भी ठहरे पक्के जिद्दी, उन्होंने सरकार से किसी भी तरह की माफी मांगने से इनकार कर दिया और दो साल जेल में गुजारे।
मजरूह सुल्तानपुरी ने हिंदी सिनेमा में लगभग चार दशकों तक अपने प्रशंसकों के दिलों पर राज किया। हिंदी सिनेमा में एक से बढ़कर एक गीतो की रचना करने वाले मजरूह ने भारतीय संगीत के लगभग सभी बड़े नामों के साथ काम किया है। जिसमें महबूब खान, गुरुदत्त, बिमल रॉय, देव आनंद, विजय आनंद, मदन मोहन,एस डी बर्मन और रोशन जैसे बड़े नाम शामिल है। हिंदी सिनेमा में इतने लंबे सफर के दौरान उन्होंने तीन सौ से ज्यादा फिल्मों के लिए चार हजार से ज्यादा गाने लिखे। इनके लिखे कुछ मशहूर गाने में 'तेरे मेरे मिलन की ये रैना', 'हमें तुमसे प्यार कितना', 'गुम है किसी के प्यार में', 'एक लड़की भीगी भागी सी', 'ओ मेरे दिल के चैन', 'चुरा लिया है तुमने जो दिल को', 'इन्हीं लोगों ने ले लीन्हा दुपट्टा मेरा', 'बाहों में चले आओ, हमसे सनम क्या पर्दा' जैसे सदाबहार नगमे शामिल हैं।
मजरूह सुल्तानपुरी ने फिल्म बाज में ओ पी नैय्यर और गुरुदत्त के साथ काम किया। मजरूह इस बात का ध्यान रखते थे कि उनका गाना मीटर और बहर से बाहर न जाने पाए। इस फिल्म के बाद इन तीनो ने कई फिल्मों में एक साथ काम किया। गुरुदत्त ने जब खुद का प्रोडक्शन प्रोडक्शन हाउस स्थापित किया तो मजरूह और ओ पी नैय्यर भी उनके साथ हो लिए। गुरुदत्त की 1954 में बनी फिल्म आर पार एक बड़ी म्यूजिकल हिट फिल्म साबित हुई। इसका गाना 'कभी आर कभी पर लागा तीरे नजर' आज भी लोगो को गुनगुनाते सुना जा सकता है। 'सुन सुन जलिमा प्यार हमको तुमसे हो गया' गाने को मजरूह ने 'प्यार मुझको तुझसे हो गया' के रूप में लिखा लेकिन गुरुदत्त को ये पसंद नहीं आया। तब गुरुदत्त ने कहा था, "मजरूह फिल्म देखने वाले गाने का मजा लेते हैं उनको ग्रामर से कुछ लेना देना नही।" मजरूह ने गुरुदत्त की इस सलाह को गंभीरता से लिया और उनका शुक्रिया भी अदा किया।
पंचम दा के नाम से जाने जानेवाले राहुल देव वर्मन और मजरूह सुल्तानपुरी की जोड़ी हिंदी सिनेमा की सबसे सफल जोड़ियों में से एक है। आर डी बर्मन और मजरूह सुल्तानपुरी ने एकसाथ मिलकर करीब 75 फिल्मों में काम किया। इस जोड़ी ने हिंदी सिनेमा को कितना प्यारा तेरा वादा, चढ़ती जवानी तेरी चाल मस्तानी, मोनिका ओ माई डार्लिंग, रात कली एक ख्वाब में आई और चुरा लिया है जैसे सदाबहार नग़मे दिए हैं। नए जमाने के संगीतकार भी इन गानों को रीक्रिएट कर शोहरत बटोर रहे है।
लगभग 40 साल तक एक से बढ़कर एक नग़मे और मुशायरे देने वाले मजरूह सुल्तानपुरी 81 साल की उम्र इस दुनियां की अलविदा कह चले गए। मजरूह सुल्तानपुरी लंबे समय तक फेफड़ों की बीमारी से परेशान रहे और 24 मई 2000 को उनका इंतकाल हो गया। उनके निधन पर संगीतकार नौशाद ने श्रद्धांजलि देते हुए कहा, "फिल्मों के नाम भुलाए जा सकते है पर गाने नही भुलाए जा सकते और ना ही मजरूह साहब के लिखे गीत।" मजरूह की कविताओं और मुशायरों को कुल्लियत-ए-मजरूह नाम की किताब में प्रकाशित किया गया है।
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