प्रसिद्ध शायर निदा फ़ाज़ली ने अपने जीवन के संस्मरणों को बहुत ही बेहतर ढंग से लिखा है। आजादी के बाद का देश कैसा था, इसका वर्णन निदा फ़ाज़ली ने अपनी किताब 'दीवारों के बीच' में किया है।
किताब में निदा लिखते हैं "विभाजन के बाद देश के कई हिस्सों में अशांति थी लेकिन ग्वालियर में सुकून था। यह बात निदा फ़ाज़ली कहा करते। वो उन दिनों के हालात के बारे में जिक्र करते हुए लिखते हैं। ग्वालियर में समय बीतता जाता है। परिपक्व लोगों के काले बालों में चांदी के तार चमकने लगते हैं। आईना आंखों के इर्द-गिर्द काले घेरे उभार देता है। बहन की हैसियत आहिस्ता-आहिस्ता अपने ही घर में मेहमान की सी हो जाती है। ज़्यादातर वक़्त नमाज़ों में गुज़र जाता है। पढ़ी हुई नमाज़ अक्सर भूलने पर दोबारा पढ़ी जाती है।
स्कूल में प्रार्थना एक उर्दू नज़्म की सूरत में है। मास्टर की हिटलर स्टाइल की मूंछें, पट्टेदार बाल फर की टोपी, हर समय मुंह में पान दबा रहता है। जनाब सिगरेट से सिगरेट सुलगाकर माचिस की बचत करते हैं। स्कूल की नौकरी उनकी ज़रूरत नहीं बल्कि एक शौक़ है। शायद इसलिए औरंगज़ेब ने पिता शाहजहां की जेल में बच्चों को पढ़ाने की दरख़ास्त को नामंज़ूर कर दिया था। "
दुकानों के अंबारों के बीच खुले मैदान में शहर के जाने माने लोग हर शाम यहीं आकर शायरी, दर्शन, राजनीति पर बहस करते हैं। बुढ़ापे में अल्लाह औलाद का मोजिज़ा दिखाता है। पुरानी नाइंसाफी रिश्तों की तरह निभाई जाती। जब कोई मेहमान आता है तो अंदर से जोर की आवाज़ देकर चाय बनाने को कहते। रसोई से ज़ोर से आवाज़ आती कि दूध और चाय पत्ती नहीं है। पाठ्य पुस्तकों से ज़्यादा कापियों की तलाश में वक्त बरबाद होने लगता। ग्वालियर में आए दिन शायरों की महफ़िल सजती रहती है।
जां निसार अख़्तर की शराब-नोशी और शायरी की तरह उनका इश्क़ भी चर्चित रहा। एक शादीशुदा औरत फ़ातिमा ज़ुबेर को सरेआम अपना बनाए हुए हैं। शायरी और आशिक़ी दोनों में प्रगतिशीलता की झलक है। बच्चों के ज़ेहन में गामा कहानी के एक देव की तरह उभरता है। मुल्लाजी के यहां सबको गिन गिन कर रोटियां दी जाती हैं। ख़्वाजा साहब की दरगाह को ग्वालियर में हिंदू -मुस्लिम एकता का पवित्र स्थान समझा जाता है। दरगाह की पेटियों में तवायफ़, चोर, सूदख़ोर सभी पैसा डालते हैं और सबका पैसा यहां आकर पाक साफ़ हो जाता।
कहा जाता है कि ग्वालियर की गद्दी सिंधिया को एक सूफ़ी मंसूरअली शाह की दुआओं की देन है। हरामी, ज़लील, आवारा, बदमाश, गज़लची जैसे गैर तहज़ीबी लफ़्ज बातहज़ीब होकर दोस्ती की पहचान हो चुके हैं। हिजड़ो के गुरु हाजी साहब के देहांत को एक साल हो चुका है। उनकी पहली बरस पर देश भर से सैकड़ों हिजड़े एकजुट होते। दो दिन नाचने गाने की महफिल सजती बाद में चादर चढ़ाने की रस्म पूरी होती। मुसलमानों की हठधर्मिता लोगों को परेशान भी करती है। हिजड़ों को भी मुसलमान बनाया जाता है।
विभाजन के कई माह बाद कई अन्य शहरों के मुकाबले ग्वालियर में सुकून है। अख़बारों से ज़रूर दहशत पैदा हो जाती है। पाकिस्तान के लुटे पिटे शरणार्थी शहर में बसने लगे हैं। सिंधिया के रुहानी गुरु सरदार सिरी साहब मुसलमानों के लीडर भी हैं। यहां के राजा का भाषण काफ़ी पुरजोश है-मुसलमानों को अब यहां रहने का अधिकार नहीं है। उनके लिए हमने काटकर पाकिस्तान को दे दिया है। हमारे घर में रहकर ही किसी हिंदू को मुसलमान बनाना ऐसा अपराध है, जो माफ़ नहीं किया जाएगा। अब देश में औरंगज़ेब की हुकूमत नहीं है, शिवाजी का राज्य है। महाराणा प्रताप का राज्य है। उर्दू और इस्लाम की अब यहां जगह नहीं है। यहां लोग भी कहते हैं पाकिस्तान मुसलमानों का होता है।
(निदा फ़ाज़ली की किताब दीवारों के बीच का अंश)
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2 वर्ष पहले
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