वक़्त के दो समानांतर अक्षों पर जहां एक तरफ़ तो मंडप सजा है और वर-वधू अपनी नई ज़िंदगी शुरू करने जा रहे हैं, वहीं दूसरे अक्ष पर एक प्रेमी तन्हा मुहब्बत की बदनसीबी गुनगुनाकर अपनी महफ़िल को सजा रहा है।
यथासंभव प्रेम के इतिहास के कई पन्ने इसी तरह की कहानियों से गुदे हुए होंगे। भाग्य के पुरोधा ही हैं वह जिनके इश्क़ की कहानी में प्रेमिका का मिलन ताउम्र के लिए हो जाता है और सौभाग्यशाली हैं वह जो अपने शैदाई की यादों और उसकी तल्ख़ियों को सीने से लगाकर ज़िंदगी बिता देते हैं।
बहरहाल यहां जिस दृश्य की परिकल्पना की गयी है वो फ़िल्म ‘दो बदन’ का है। नायक प्रेमी अपनी प्रेमिका की शादी के मौके पर अंतस के दर्द को आवाज़ देते हुए गुनगुनाता है कि
रहा गर्दिशों में हरदम, मेरे इश्क़ का सितारा
कभी डगमगाई कश्ती, कभी खो गया किनारा
कोई दिल के खेल देखे, के मोहब्बतों की बाजी
आस्मान के सीने में लाखों तारे चस्पा हैं लेकिन हर एक तारे की किस्मत में चमकना नहीं होता, कुछ टूट जाते हैं तो कुछ डूब जाते हैं ठीक वैसे ही जैसे हर कश्ती समंदर को पार कर साहिल पर नहीं पहुंच जाती और उस पर बिडंबना यह है कि डूबने वाला तारा प्रेम का था और डगमगाती कश्ती पर प्रेमी ख़ुद सवार है।
कोई दिल के खेल देखे, के मोहब्बतों की बाजी
वो कदम कदम पे जीते, मैं कदम कदम पे हारा
रहा गर्दिशों में हरदम...
प्रेम जब आता है तो अकेला नहीं आता, अपने साथ कई गुण लेकर आता है उनमें से एक बेबफ़ाई और तन्हाई भी है। इस गीत को लिखने वाले गीतकार ‘शकील बदायुनी’ ने इसे निश्चय ही बहुत गहराई से समझा होगा इसलिए वह बिछड़न के दर्द के इस मानक को तय कर सके और उस पर भी संगीतकार रवि ने अपनी धुन से इसे चार चांद लगा दिए।
ये हमारी बदनसीबी, जो नहीं तो और क्या है
ये हमारी बदनसीबी, जो नहीं तो और क्या है
के उसी के हो गये हम, जो ना हो सका हमारा
रहा गर्दिशो में हरदम...
मुहब्बत को लेकर की गयी इससे सुंदर तुकबंदी और क्या होगी तिस पर मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ में ‘बदनसीबी’ शब्द जिस स्थिरता के साथ निकला है मानो वह उस प्रेमी के दिल में ही उतर गए हों और उसके बाद की पंक्ति में बदनसीबी के कारण को भी उसी स्थिरता के साथ ही बताया भी है।
पड़े जब ग़मों से पाले, रहे मिट के मिटने वाले
पड़े जब ग़मों से पाले, रहे मिट के मिटने वाले
जिसे मौत ने ना पूछा, उसे ज़िन्दगी ने मारा
रहा गर्दिशो में हरदम…
हिज्र से अच्छा तो मौत आती चूंकि रोज़-रोज़ के मरने से बेहतर है कि एक ही बार में प्राण निकल जाएं।
इस गाने के भाव के साथ, संगीत की गहराई और रफ़ी साहब की आवाज़ की स्थिरता के कारण यह मेरा बेहद अज़ीज़ नग़्मा है जिसे मैं जितनी बार सुनूं उतनी बार मानो बिरह के किसी प्रेमी के ह्र्दय में उतर जाती हूं।
कमेंट
कमेंट X