एक दीप जल रहा था निशा के रोप में,
बड़ा ही मचल रहा था जाने किस कोप में।
मैंने उससे पूंछ लिया यूं ही अनायास,
दीप आज तुम क्यों हो बड़े उदास ?
क्यों तुम्हारे जलन में वेग आ गया है,
अचानक ये कैसा तेज आ गया है ?
तुम शांति में तो हो प्राशांत,
फिर आज क्यों हो रहे अशांत ?
तुममें ज्ञान की है बड़ी प्रखरता,
फिर आज क्यों है ये प्रबलता ?
यूं न हो तुम एेसे निराश,
तुमसे ही तो है जग में आश ।
सुनकर किया दीप ने उच्छ्वास,
क्या तुमको है कविता की आश ?
तुम कवि स्वभाव के हो चंचल,
बतला कर मैं मचबाऊं हलचल ।
जो तुमको मैं बात बताऊं,
सोते से संसार जगाऊं ।
मैंने कहा सुनो दीपेश,
बात है बड़ी विशेष ।
कवियों की है अद्भुत काया,
जिसमें सकल ब्रह्मांड समाया ।
कवि जब भावों में रस भरते हैं,
वृक्षो से मोती झरते हैं ।
जब आशा में रंग भरते हैं,
इन्द्रधनुष बन बादल झरते हैं ।
कवि जब अपनी लय में आए,
पत्थर में भी फूल उग जाए ।
हे नूतन तुम करो विचार,
ऐसे न करो दुर्व्यवहार ।
सुनकर मेरी बात दीप सहम गया,
उसका चला सारा भरम गया ।
कहा मित्र ! है बात बड़ी विषम,
मानो तो है मन का जरा भरम ।
अब तुम सुनो मेरा संवाद,
आज रजनी से हो गया विवाद ।
कह रही थी क्यों जल गए हो,
आकर मुझमें मिल गए हो ।
तुम्हारे पुंज क्यों मुझको सता रहे,
मेरी शांति को क्यों हैं गमा रहे ।
मैंने कहा रागिनी ये तो संयोग है,
तेरे मेरे मिलन का ये एक योग है ।
इसमें भला है क्यों तुम्हें ऐतराज,
यह तो है एक बड़ा पवित्र राज ।
रात्रि ने कहा है यही तुममें चतुराई,
इसीलिए तुम्हारी वर्चस्वता है छाई ।
माना काली है मेरी छाया,
पर है ऊपर वाले की माया ।
मैं जगत को देती हूं विश्राम,
फिर भी क्यों होती हूं बदनाम ।
मैंने कहा यह है तुम्हारा भरम,
मै तो करता हूं अपना करम ।
मैं हूं दुनिया को राह दिखाता,
जग को हूं ठोकरों से बचाता ।
यह सुनकर रात तिलमिला गई,
उसमें नाराजगी झिलमिला गई ।
ऐसी न थी हमें अपेक्षा,
उससे मिली जो उपेक्षा ।
इसीलिए मुझमें वेग आ गया है,
एक आश्चर्य का उद्वेग आ गया है ।
मैंने कहा दीप है ऊपर वाले की माया,
जिसने है रजनी को भरमाया ।
पर सुन लो मेरी एक बात,
आयेगी एक दिन वो रात ।
जब वो चांदनी में नहा जायेगी,
अपने किए पर वो पछितायेगी ।
तव मैं अपनी कविता को स्वर दूंगा,
और एक विशिष्ट रचना में बर दूंगा ।
हो जायेगा फिर से मिलाप,
अब छोड़ दो अपना विलाप ।
आखिर में सच हो गई मेरी वो बात,
चंद दिनों में आ गई पूर्णिमा की रात ।
चांदनी से थी निशा जगमगा रही,
नभ में रोशनी की बहार छा रही ।
इस दृश्य से रजनी अकुला गई,
सौंदर्यता पर अपने बौखला गई ।
कितना प्यारा था वह मेल,
नूतन जब खेलता था खेल ।
हाय मैं कैसी नीरस रात,
कह गई जो ऐसी बात ।
अपने अश्रु को छिपा रही,
रागिनी थी अब पछिता रही ।
उसने कहा दीप लो तुम सांस,
जलते रहो यूं ही अनायास ।
अब ऐसे भला न हो तुम उदास,
मेरे अंधकार को दे दो प्रकाश ।
मैं तुम्हें अब व्यवहार दूंगी,
अपने रूप से निखार दूंगी ।
सुनकर दीप हो गया आबाद,
कहने लगा हमें बहुत धन्यवाद ।
मैंने कहा है बड़ा पवित्र मेल,
दीप अब खेलते रहो तुम खेल ।
अब मैं दूंगा इसे एक दिशा,
बना दूंगा इसको दीप निशा ।
योगेश तिवारी
(रीवा, मध्यप्रदेश)
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