विस्थापन
हँसी-खुशी से कट रही जिंदगी को
जब नफरत के कसाईबाड़े की तरफ
झोंक दिया जाता है,
साबुत कुछ नहीं बचता --
सभ्यता-संस्कृति
पर्व-त्यौहार
रिश्ते-नाते
यहाँ तक की प्रेम-मोहब्बत भी;
तब लगता है :
जैसे अररा-कर गिर गया हो
कोई प्राचीन
लेकिन हरा-भरा-पूरा बरगद,
और जीवित पक्षियों की टोली
कूच करने को मजबूर हों
अपने मरे-अधमरे परिजनों को छोड़कर।
आह! तनिक सी अपनी जिंदगी
और हम अपनों में
न रह पाने के लिये
कितने अभिशप्त हैं!
विनोद मिश्र
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