दिल का क्या दिल तो पागल है रोवे है कभी गावे है, कि जेठ की दोपहरी में जैसे बादल आवे – जावे है।
उम्र चढ़ी तो रफ्ता – रफ़्ता अर्थ खेल के बदल गए, साँझ सकारे भी अब धनिया मिलने से कतरावे है ।
धूप हुई अवारा दिन–भर इत-उत आँख लड़ावे है,
सहर हुए निकले है घर से साँझ हुए घर आवे है।
कि पाँवों में पाजेब पड़े जब माँग खिले सिन्दूरी है, पीपल की अब छाँव घनेरी ना धनिया को भावे है।
जीवन तो है ‘तेज’ पहेली सुलझाए ना सुलझे है,
जब चाहे तब बह निकले है जब चाहे थम जावे है।
- तेजपाल सिंह ‘तेज’
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