ये वैराग्य में बंधा मन
शांत शीतल सा मन
सौंदर्य की कल्पना में गोते सा लगाता
अभिभूत सा ये निश्चल तन
कभी भोर सा सूर्य की किरणों में
कभी चितचोर सा संवाद में वर्णों में
यह देह का अवलोकन और मीठा सा स्वप्न
ये वैराग्य में बंधा मन
शांत शीतल सा मन
आराध्य को समर्पित और
कल्याण को अर्पित
प्रसंग से वरण तक
विवेक से हरण तक
चमकता कभी छुब्द होता
ये वैराग्य में बंधा मन
शांत शीतल सा मन
इस मन के परिणाम बनो
इस मन का परिमाण बनो
कर लो अपने वश में
ना रहो अब कशमकश में
ये वैराग्य में बंधा मन
शांत शीतल सा मन।
हमें विश्वास है कि हमारे पाठक स्वरचित रचनाएं ही इस कॉलम के तहत प्रकाशित होने के लिए भेजते हैं। हमारे इस सम्मानित पाठक का भी दावा है कि यह रचना स्वरचित है।
आपकी रचनात्मकता को अमर उजाला काव्य देगा नया मुक़ाम, रचना भेजने के लिए यहां क्लिक करें।