दादुरों ने तान छेड़ी, चुप रहो तुम कोकिलाओं !
हुआ वातावरण कलुषित, कर रहा विष वार चंदन।
और दूषित गंध अंजुल भर, प्रणय अभिसार उपवन।
निज प्रकृति से सुरभि लेकर, तुम न महको ओ हवाओं!
नभ दिशा में ताकता मन, कब घृणा पर प्रीत बरसे।
दुर्बलों के सम्बलों से, सबल जन विपरीत बरसे।
निर्बलों पर प्रबल बरसे, तुम न अब बरसो घटाओं !
हृदय काले मन कुचाली, वेशभूषा संत वाली।
नेक, अनचाहे अतिथि को, दे रहे अनगिनत गाली।
विलखती हैं दश दिशाएं, अब न तुम गूंजो ऋचाओं !
संजय नारायण
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