कितनी सुकून भरी होती है तुम संग,
वो एक प्याली सुबह की चाय,
दिन की शुरुआत होती है तुम्हारे हाथों की वो चाय,
एक शान्त सा माहौल और हाथ में अखबार,
कुछ नए दिन की व्यस्तताओं से दूर हो कर,
वही पल शायद सब से सुंदर होते हैं दिन के,
मुझे रहता है इंतज़ार इस सुबह का,
कहीं चोरी चोरी देखते हैं हम एकदूजे को,
शायद उतरा नहीं अभी रात के प्यार का खुमार,
यही पल होते हैं अंतरंग जब खुद से दूर खुद के संग,
ये चाय तो एक बहाना है उस आत्मीयता का,
जो दो रूहों को मिलाता है कभी मिठास,
कभी कड़कपन का एहसास दिलाती है ये चाय,
कभी तुम बिन ना पीनी पड़े ये सुबह की चाय,
बस ये जान लो कभी अकेले नहीं बनती है चाय,
गृहस्थी मिश्रण है कड़कपन और मिठास का,
कभी रुसवाइयों का कभी अपनेपन के एहसास का,
मेरी आदत हो गई है ये चाय,
मेरी चाहत हो गई है ये चाय,
कितनी सुकून भरी होती है तुम संग,
वो एक प्याली सुबह की चाय,
हाय वो तुम संग सुबह की चाय।
- संजय भाटिया
डी एल एफ़ 3,गुरुग्राम।
हरियाणा।
-
हमें विश्वास है कि हमारे पाठक स्वरचित रचनाएं ही इस कॉलम के तहत प्रकाशित होने के लिए भेजते हैं। हमारे इस सम्मानित पाठक का भी दावा है कि यह रचना स्वरचित है।
आपकी रचनात्मकता को अमर उजाला काव्य देगा नया मुक़ाम, रचना भेजने के लिए यहां क्लिक करें।