सुबह होती है उम्मीदों से साथ
दिन गुजरता है उम्मीदों से साथ
उम्मीदें टूटने लगती हैं
शाम ढलते-ढलते...
सोचते सोचते
निकल जाता हॅूं जिन्दगी से आगे
बिखर जाते हैं सारे सपने
शाम ढलते-ढलते...
चलते चलते
पहुॅच जाता हूॅं ख्वाबों के सागर में
दूर हो जाते हैं सारे रास्ते
शाम ढलते-ढलते...
जब भी सोचता हूॅ जिन्दगी के बारे में
थक जाता हूॅं सोचकर
शाम ढलते-ढलते...
बच्चे निकलते हैं लेकर सुबह उम्मीदों का बस्ता
लौटते हैं उम्मीदों के साथ
शाम ढलते-ढलते...
रोहित अग्रवाल
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