हाकिम से भी छीना जाता है हीरा
जब दर पर बैठी हो बख़्त-ए-तीरा
अगर मंसूर ही बेमुरव्वत हो जाये
तड़प तड़प कर जान देती है मीरा
रश्क भी क्या कोई कला है
भला इससे भी इश्क मिला है
ना जाने क्यूं है मुजतर फिर भी लोग
जब फूलों को ना कांटों से गिला है
इसलिए कातिल लगती है ये बहार
क्यूंकि हो गयी है रश्क की अजार
अब होगी इनायत इस खुदा की बस्ती पर
इश्तियाक है दूँ मैं इस जहां को संवार
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