अपने किन्हीं मित्र का,
पढ़ाया उन्होंने मुझे यह सन्देश,
कुछ कशिश भरा,
कुछ निराश मन की व्यथा से भरा,
दर्शाता उनकी उत्सुकता एवं व्याकुलता – कि
“पहुंच चुके हैं हम लोग,
उम्र के उस पड़ाव पर ,
भाता नहीं अब –
न पड़ता है अंतर कोई - कि,
है आज ‘रोज डे’, ‘टेडी डे’, प्रॉ’मिस डे’,
या फिर ‘वैलेंटाइन डे’ I
लेकिन अंतर पड़ता है हमें अवश्य,
भयानक अंतर,
तो केवल ड्राई डे से” I
हुआ सुन कर एकबारगी ही,
मन में रोष अत्यधिक,
लिखवाया उत्तर उन्हें तुरंत,
कुछ इस तरह –
“क्यों है भटकन ?
कल्पना भी कर सकते हैं ऐसी कैसे वे ?
अपनी प्रियतम पत्नी के मृगनयनों की –
झील की गहराई में,
निहारते हुए - तनिक डूब कर तो देखें,
कुछ और गहराई में,
किस पड़ाव की बात –
हैं वो करते ?
हर क्षण ही तो करता है मन,
खो जाने को –
मतवाले उन दो नयनों में” I
कल्पना भी कर सकते हैं ऐसी कैसे वे ?
बनाये रक्खें दांपत्य जीवन की गरिमा,
रहें जकड़े अटूट बंधन में - पारस्परिक प्रेम के,
करें आदर एक दूजे का,
आपसी समझ एवं विश्वास का -
बने उदाहरण अदुभुत,
रहें खोए खोए एक दूसरे में,
लें आनंद भरपूर -
पारिवारिक जीवन की मिठास का,
क्यों है भटकन ?
कल्पना भी कर सकते हैं ऐसी कैसे वे ?
भाग्यशाली हैं वे - जिनको मिल पाता है,
सुखद दांपत्य जीवन,
अपितु टूटे हुओं को बिखरते,
प्रायः सिसकते - अंदर ही अंदर घुटते ही तो देखा है,
क्यों है भटकन ?
कल्पना भी कर सकते हैं ऐसी कैसे वे ?
- भगवान दास मोटवानी
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