कह के अपना वो आजमाने लगे हैं
उझाल के किश्तों में इज्जत हमारी
वो जश्न खुशियों का मनाने लगे हैं
हमारी नासमझी समझ ना सके
परख तोल के अब अहसास हमारे
वो अपना आशियाना सजाने लगे हैं
हम रूठे भी तो किन अपनों से
यहां सभी से बेदख़ल हो कर अब
ख़ुद ही से रूठने मनाने लगे हैं
लिपट के रिश्तों की चादर में
बुन जज्बातों के आंचल में सिमट
हम भी रस्में बेकार की निभाने लगे हैं
पलड़ा रिश्तों का कब भारी हुआ
सब में धब्बा स्याही में नाम हमारा
हम बदनामी का बोझ उठाने लगे हैं।
✍️नेहा यादव
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