मूक नयन भी क्या गाते
बिन अधरों के देखो कैसे
मधुर -मधुर स्वर टपकाते
हिये में छुपे हजारों अंकुर
पलकों पर पत्तें सुलगाते
ये तो है यक ऐसा सागर
जो बस मोती ही उपजाते
हिये में जब तूफान उठा हो
एक-एक करके बह जाते
यदि हो अधर नयन दो सम्मुख
तो अधरों को कुछ न बतलातें
मिलन नयन का हो नयनों से
बिन शब्दों के करते बातें
अट्ठहास करती हैं आंखें
अरु हर्षित हो के मुस्काते
मन है झूठा अधर है झूठा
नयन सत्यता ही दर्शातें
काला-काला नयन नगर है
पर कितने आलोक बिछाते
नयनों की तो बात न पूँछो
इसमे हैं लाखों दिन रातें
शांतिभाव नयनों से सीखों
जिसको ये चुपचाप सिखाते
सुन्दरता की खोज नयन से
निरखि-निरखि कर सुभग बनाते
यदि होता सारा जग अन्धा
तो कैसे सब सुन्दर हो जाते
सिसक-सिसक कर रो देतें हैं
हँस-हँस कर जब ये थक जाते
- यज्ञ दत्त शुक्ल"राजन"
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