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शुचिता

                
                                                                                 
                            मेरी सांसो में धुआं ,आँखों में अंगार है
                                                                                                

धधंक रहा है जिस्म, मगर रूह में प्यार है

वह चाहता है , मेरी बर्बादी का मंजर
और दिल है कि माफ करने को तैयार है

यह कैसा निजाम है यहाँ हत्यारे सरेआम है और
मजलूमो को आज भी घर वापसी का इंतजार है

रफ्ता रफ्ता ही मिलती है, मंजिले पर
यह पतंगा पल में चांद छूने को बेकरार है

अभी शुचिता का कहाँ प्रसार है
पहली सफो में तो सारे दागदार है

चबंल भी अब बहुत निर्जन और वीरान है
सारे डाकू तो राजनीति के घोड़ों पर सवार है।

- नाहर सिंह
 
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1 year ago

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