मौसम बदले साल बदला,बदल गयी बाजार की रंगत
गुनगुनी धूप, खुशनुमा बयार,सब बदल गया ।
बदला नहीं कुछ तो इंसान का अहंकार,झूठ और फितरत
वो यूं ही परत दर परत सज रही है वधू के मांग की सिन्दूर की तरह
वंश दर वंश आवेश बढ़ा,नफरत बढ़ी परिवार बढ़कर बिखर गया
न बढ़ा तो प्रेम ,न बढ़ी तो इंसानियत,और न ही भाईचारा
सब कचरे में पड़ा अपने हालात पर आंसू बहा रहा बेचारा।
घाटियां खुशनुमा हैं, सदाबहार है चिनार के रंग भी संग सदाबहार होकर बदलते हैं ,बस नियति की विडंबना है ।
इंसान ही इंसान का शत्रु है ।
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1 month ago
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